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दुखी भारत


कार्य्य के लिए उपस्थित करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को दस सेंटिम जमा करना पड़ता है। जिसके नाम चिट्ठी निकलती है वह उस रात को उस नर्तकी और उसके कमरे पर अधिकार रख सकता है। फिर तो उसे कमरे की कुञ्जी बिना मोलभाव के मिल जाती है। एक दूसरे त्योहार के अवसर पर सङ्गीत-भवन की सुन्दरियों की प्रदर्शिनी की जाती है। सञ्चालक दर्शकों की भीड़ के सम्मुख प्रत्येक का मूल्य उपस्थित करता है। यह सौदा महीने भर के लिए, रात भर के लिए या दिन भर के लिए होता है। यह एक वास्तविक बाज़ार—सफेद गुलामों का व्यापार है।"

मिस्टर ब्यूरो एक दूसरी पाद-टिप्पणी से युद्ध के समय की बातें लिखते हैं[१]

"युद्ध की 'देव-माताओं' का संघ—उसके स्थापित करनेवालों ने कभी ऐसे व्यभिचार की कल्पना भी न की होगी—शीघ्र ही वेश्यावृत्ति करने लगा। विक्रेता और क्रयी दोनों की ओर से चेष्टाएँ आरम्भ हुईं। कई एक दैनिक समाचार-पत्रों को जिनकी कि ग्राहक संख्या बहुत बढ़ी चढ़ी थी और विशेषतः फैंटेसियो' और 'वी पेरिसिनी' नामक दो सचित्र पत्रों को ऐसी 'देव-माताओं' की आवश्यकता और आवश्यकतापूर्ति सम्बन्धी विज्ञापन छापने से बड़ा लाभ हुआ। १९१७ ई॰ के आरम्भ में वी पेरिसिनी की केवल एक संख्या में ऐसी आवश्यकता पूर्ति के १९९ विज्ञापन थे।"

भारतवर्ष में जिस प्रकार का जीवन केवल वेश्याओं और देवदासियों तक ही परिमित है वह पश्चिम में समाज के अत्यन्त विस्तृत भाग तक फैला हुआ है। युवक डुमास ने एक साहित्यिक लेख में 'डेमी मोण्डी'—अर्द्धवेश्याओं की व्याख्या इस प्रकार की है:—

"ये समस्त स्त्रियाँ पहले ही पथ-भ्रष्ट हो चुकी थीं। उनके नाम पर एक छोटा सा कलङ्क लग चुका है। इस कलङ्क का प्रभाव कम करने के उद्देश से ये यथा-सम्भव संघ बनाकर रहती हैं। अच्छे समाज में उत्पत्ति, दिखलावा, द्वेष आदि जो बातें होती हैं वे उनमें भी पाई जाती हैं। परन्तु अन्तर इतना ही है कि इस समाज में वे सम्मिलित नहीं हैं। उनका पृथक्क समाज है जिसे हम 'डेमी मोण्डी' कहते हैं। यह 'डेमी मोण्डी' समाज पेरिस के समुद्र में तैरते हुए एक द्वीप के समान है। प्रत्येक स्त्री को जिसका दृढ़


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १५।