पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
दुखी भारत

"बत्तीस करोड़ नर-नारियों के सम्पूर्ण राष्ट्र को वह अपाहिज, अनाचारी और बेहया तथा कूठा बतलाती है। यदि एक भारतीय, योरोप या अमरीका के किसी देश में कुछ ही महीने रहने के बाद वहां के किसी राष्ट्र के सम्बन्ध में ऐसी ही सम्मति देने का दुस्साहस करता और सनसनीदार मुकदमों और हत्याओं तथा शारीरिक और मानसिक गिरावट की रिपोर्टों के बल पर, जो कि अदालतों की कार्रवाइयों, अस्पतालों और व्यक्तिगत अनुभवों, अफ़सरों के बयानों, अख़बारों के आन्दोलनों तथा दूसरे खास दृष्टान्तों से सच साबित होती हैं, सम्पूर्ण योरोप के लोगों, उनकी सभ्यता और आचरण को कलङ्कित करता तो वह निस्सन्देह गम्भीर विचार के अयोग्य ठहराया जाता.........।

"हम इस प्रकार की पुस्तक पर सार्वजनिक रूप से विचार करने की आवश्यकता नहीं समझते थे। पर जब हम देखते हैं कि इस डामाडोल परिस्थिति में भारत को खुल्लम-खुल्ला हानि पहुँचाने के लिए इस पुस्तक का प्रकाशन विलायती समाचारपत्रों का खूब ध्यान आकर्षित कर रहा है तो हम अपना यह कर्त्तव्य समझते हैं कि जो हमें दुष्टता से भरी एक ही पुस्तक प्रतीत होती है उसके विरुद्ध ब्रिदिश-जनता को सावधान कर दें।"

३—यह पुस्तक ग्रेट ब्रिटेन अमरीका, दोनों जगह मुफ्त बाटी गई। पार्लियामेंट के सदस्य माननीय महाशय कर्नेल वेजउड को तीन प्रतियाँ मिलीं। तीनों मुफ़्त। केवल सार्वजनिक आन्दोलन की पुस्तकें ही ऐसी हैं जो मुफ़्त में और इतनी उदारता से दी जाती हैं।

[ ३ ]

पिछले खण्ड में मैंने अगस्त १९२७ में, जब कि विलायत के सुकृती समाचारपत्र मिस मेयो की पुस्तक का खूब आन्दोलन कर रहे थे, कुछ उत्तरदायी भारतवासियों द्वारा लन्दन के 'टाइम्स' को भेजी गई एक चिट्ठी उद्धृत की थी। हस्ताक्षर करनेवालों में तीन सज्जन (दो हिन्दू और एक मुसलमान) 'ह्वाइट हाल' की भारत-कौंसिल के सदस्य थे। इस पद पर पहुँचने से