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दुखी भारत

में उनकी यह सुख-भोग की इच्छा और गम्भीर परिणामों से भागने की प्रवृत्ति विशेषरूप से स्पष्ट हो गई थी। यदि कोई युद्ध के आरम्भ के दिनों में इँगलैंड के अन्धकारमय और दुःखी जीवन से निकल कर सीधा भारतवर्ष के इस सुख में मन तथा विचारविहीन समाज में प्रवेश करता तो उसके आश्चर्य्य का ठिकाना न रहता। यहां यह कहना कठिन था कि कहीं कोई युद्ध भी हो रहा है। इससे सन्देह नहीं कि सरकारी तौर पर किये गये उत्सवों—जैसे सिविल सर्विस और रेजिमेंट सम्बन्धी नृत्यों को कुछ काल के लिए बन्द कर दिया गया था। परन्तु तब भी यथेष्ट चहल-पहल रहती थी। क्लब में प्रति सप्ताह या सप्ताह में दो बार नृत्य होते थे। खेल-कूद के मैदानों और व्यायाम-शालाओं में अच्छी भीड़ रहती थी। सरकारी अफ़सरों की ओर से दावतें होती रहती थीं। व्यक्तिगत सहभोजों का भी बाहुल्य था। आगे क्या होनेवाला है? इसकी किसी को चिन्ता नहीं प्रतीत होती थी। युद्ध के समाचार जानने की भी किसी को विशेष इच्छा नहीं होती थी। सच बात तो यह है कि युद्ध की चर्चा ही बहुत कम होती थी।"

ऐंग्लो इंडियन समाज के स्त्री-पुरुष-विषयक सदाचार के सम्बन्ध में इस अँगरेज़ महिला ने लिखा है[१]:—

"ऐंग्लो इंडियन समाज के विरुद्ध प्रायः यह आक्षेप किया गया है कि उनका सदाचार-सम्बन्धी आदर्श इँगलैंड की अपेक्षा निम्न कोटि का है। परन्तु इस समाज के समर्थकों ने इस बात का सदैव घोर-विरोध किया है। वहाँ परिस्थिति ही सर्वथा भिन्न है। और इस बात को ध्यान में रखकर कि अस्थायी नौकरों का जीवन सुखभोग को ही सब कुछ समझ बैठता है, हमें उनके सम्बन्ध में सहानुभूति के साथ विचार करना चाहिए ।......किसी प्रकार भी हो यह बात अवश्य कौतूहल-पूर्ण है कि जो श्रीमती स्मिथ यदि सौभाग्य से ब्रोमली, या पिनर या पश्चिम हैम्पस्टेड में रहने को स्वच्छ और छोटा सा गृह पा जातीं तो निष्कलङ्क, योग्य, सुगृहिणी, और सुमाता होतीं, सम्मान से ऊब जातीं और केवल अपने बच्चों में, अपने गृहकार्य्य में और अपनी अल्पसंख्यक सहेलियों में निमग्न रहतीं, वे ही दुर्भाग्य से भारतवर्ष में रहने पर सांसारिक वासनाओं में फँस जाती हैं, केवल सुख-भोग की बातें सोचती हैं और प्रतिमास एक नये "युवक" को अपने पास रखती हैं। क्योंकि भारतवर्ष में प्रायः प्रत्येक स्त्री, जिसकी अवस्था ५० वर्ष से कम होती है, अपना एक ख़ास 'युवक' रखती


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ३६-३८