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दुखी भारत

करनी पड़ी। अस्तु। अभी हाल ही में स्वयं मिस्टर चर्चिल के देश के सम्बन्ध में वहाँ के लोकप्रिय लेखक—'एक धूल झाड़नेवाले सज्जन' ने निम्न-लिखित बात लिखी थी[१]:—

"हमारे बड़े शहरों में आधुनिक बाल-जीवन की क्या अवस्था है? इसको समझने के लिए १६ वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए और १४ वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए क़ानून बनाने की आवश्यकता के सम्बन्ध में पहले गम्भीरता के साथ विचार कीजिए। इन शिशुओं की माताएँ कहाँ हैं? उनके गृह-जीवन की क्या दशा थी? क्या देश के स्त्रीत्व के सम्बन्ध में कुछ पूछना उचित नहीं है? क्या आर्थिक परिस्थितियों के गौण परिणामों की ओर बहक जाना मूर्खता नहीं है?

"उपन्यास-लेखिका मिस क्लिमेन्स डेन ने शिशुओं के प्रति की जानेवाली निर्दयता का प्रश्न उठाया है। यह भयङ्कर और वर्णनातीत निर्दयता हमारे समस्त बड़े नगरों और क़स्बों में पाई जाती है। और न जाने किस अज्ञात कारण से मजिस्ट्रेट लोग इसके लिए बड़ा हलका दण्ड देते हैं।

"उसने समस्त निर्दयताओं से घृणित निर्दयता—बच्चों पर किये गये आक्रमणों—के सम्बन्ध में लिखा है। उसके लेख से मैं निम्नलिखित उदाहरण उद्धृत करता हूँ:—

"बच्चों के प्रति वर्णनातीत अपराध करनेवालों के साथ प्रायः क्या व्यवहार किया जाता है यह बिना किसी चुनाव के समाचार-पत्रों से लिये गये निम्नलिखित उदाहरणों से प्रकट हो जायगा। मैं बहुत सी विस्तृत बातों को छोड़ देती हूँ क्योंकि वे सब छापी नहीं जा सकती हैं:—

'चार वर्ष के एक शिशु पर चोट करने की चेष्टा करने के लिए पूर्व के सुचरित्र के कारण केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।'

'सात वर्ष के शिशु पर चोट करने के अपराध में ६ महीने की सज़ा दी गई।'

'चार वर्ष के शिशु पर चोट करने के लिए दो पौंड जुर्माना किया गया।'

'सात वर्ष के शिशु पर आक्रमण और अनाचार करने के अपराध में चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।'


  1. दी ग्लास आफ़ फ़ैशन (शृङ्गार-दर्पण) मिल्स एण्ड बून लन्दन, १९२२, पृष्ठ १४५-१४७।