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दुखी भारत

अपने आपको एक हिन्दू अफसर के अधीन पाया। यह नवयुवक अभी अभी कालिज से निकला था और नये नये विचारों से भरा हुआ था। इसने अपने पुराने मातहत को दुःख देना आरम्भ कर दिया और इसे इतना सताया कि बेचारे के नाक में दम आ गया। तब यह वृद्ध मुसलमान अपने पुत्र के साथ एक बड़े ब्रिटिश अफ़सर के पास सलाह लेने गया। अपनी कथा समाप्त करने के पश्चात् पुत्र ने कहा––'साहब, क्या आप मेरे पिता की सहायता नहीं कर सकते? इतने वर्षों की नौकरी के पश्चात् उनके साथ इस प्रकार का वर्ताव होना वास्तव में बड़े शर्म की बात है।' परन्तु अँगरेज लोग भला अक्सर से कब चूकते हैं। साहब ने कहा––'महमूद, तुम सदा स्वराज्य मांगते रहे हो? इस घटना से तुम्हें पता चल गया होगा कि स्वराज से तुम्हें क्या लाभ हो सकता है? कहो! अब तुम इसके सम्बन्ध में क्या सोचते हो?' पुत्र ने उत्तर दिया––'आह, परन्तु अब तो मुझे डिप्टी कलेक्टरी मिल गई है। शीघ्र ही मैं कार्य आरम्भ कर दूँगा। और जिन हिन्दुओं पर मैं अपना हाथ लगाऊँगा उन्हें ईश्वर ही बचावे।"

नाम एक भी नहीं दिया गया। मिस मेयो को ये बातें कहीं से ज्ञात हुई, यह भी वह नहीं लिखती। बड़े ब्रिटिश अफ़सर के मुँह से या मुसलमान डिप्टी कलेक्टर के मुँह से ये बातें नहीं निकल सकतीं। क्या कोई व्यक्ति जो अपने होश में हो इस बात पर विश्वास कर सकता है कि एक शिक्षित मुसलमान जिसे डिप्टी कलेक्टरी का पद मिला हो किसी ब्रिटिश अफ़सर के सामने ऐसी बातें कह कर अपने पद और भविष्य की उन्नति को ख़तरे में डालेगा? अथवा क्या हम यह मान लें कि उच्च ब्रिटिश अफसर अपने अधीन भारतीय कर्मचारियों को ऐसी बातें कहने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं?

जो अब तक मिस मेयो का थोड़ा बहुत विश्वास कर भी रहे थे वे मदर इंडिया के २०४ पृष्ट पर निम्न-लिखित वर्णन पड़ने पर उसका सर्वथा अविश्वास करने लगेंगे:––

"कम से कम एक कट्टर हिन्दू नरेश योरपियन लोगों की समाज में जाने पर प्रायः दस्ताने पहन लिया करता था। परन्तु उसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार लन्दन के एक प्रीतिभोज में सम्मिलित होने पर जब उसने दस्ताना उतारा तो उसके पास ही बैठी हुई एक महिला ने उसके हाथ में एक