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हिन्दुओं का स्वास्थ्य-शास्त्र


ठाकुर साहब दूसरों के पहने हुए 'जूतों, वस्त्रों और मालाओं' को न पहनने की आज्ञाओं को भी उद्धृत करते हैं[१] और उस पर अपनी सम्मति प्रकट करते हैं कि 'इस उपदेश से ज्ञात होता है कि हिन्दू छूत से फैलनेवाले रोगों की ओर से असावधान नहीं थे।'

व्यक्तिगत स्वच्छता में हिन्दू आदर्श सदैव अत्यन्त उच्च कोटि का रहा है और आज भी वैसे ही सर्वोच्च है। गत शताब्दी के अन्तिम भाग में सर विलियम हंटर ने, जिन्हें हिन्दुओं की रहन-सहन का दीर्घ अनुभव था, उनकी स्वच्छ वृत्तियों से प्रभावित होकर निम्नलिखित सम्मति प्रकट की थी:—

"यह कहने की आवश्यकता नहीं कि एशिया की जातियों में भारतवर्ष के हिन्दुओं के समान शारीरिक स्वच्छता का भाव किसी में नहीं है। एशिया के ही क्यों इस सम्बन्ध में वे संसार की सब जातियों से आगे हैं। हिन्दुओं का स्नान एक कहावत हो गया है। उनका धर्म उन्हें इस बात की आज्ञा देता है। और युगों की रीति-रिवाज ने स्नान को उनके दैनिक जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकता बना दिया है।"

'सार्वजनिक स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से भी हिन्दुओं में कोई कमी नहीं थी। उनके राजनैतिक ग्रन्थों ने एक ऐसे पृथक् राजकीय विभाग को स्वीकार किया है जो शुद्ध जल का प्रबन्ध करता था, राजपथों, बीथियों एवं सर्वसाधारण के काम में आनेवाले स्थानों की शुद्धता का ध्यान रखता था, और जनता के स्वास्थ्य के विरुद्ध आचरण करनेवालों को दण्ड देता था। मदरास के गवर्नर लार्ड एम्पथिल ने फ़रवरी १९०५ ईसवी में मदरास के राजकीय चिकित्सा-विद्यालय को उद्घाटन करते हुए इस विषय पर एक लम्बा व्याख्यान दिया था[२]। उन्होंने कहा था:—

"अब हमें शनैः शनैः यह बात मालूम होने लगी है कि हिन्दू-धर्म-शास्त्रों में भी स्वच्छता-सम्बन्धी नियमों का वर्णन किया गया है। इन नियमों


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ७२
  2. व्याख्यान के अवतरण मिस्टर हरविलास शारदा की 'हिन्दुओं की प्रधानता' नामक पुस्तक में मिलेंगे। पृष्ठ २५३ और आगे।