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दुखी भारत

सकती जैसी स्वाधीन देशों की हुई है, इस देश में रोग की समस्या को और भी जटिल बना दिया है। रेलों के कारण महामारियों का फैलना और भी सरल हो गया है। इसलिए सरकार का यह परम कर्तव्य है कि इन रोगों से युद्ध करने के लिए वह यथेष्ट धन व्यय करे। नहरों के निकलने से मलेरिया (जूड़ी बुख़ार) और भी फैलने लगा है। परन्तु मलेरिया को रोकने के लिए जो उपाय पनामा की नहर के पास-पड़ोस की भूमि में तथा अन्य स्थानों में किये गये वह भारतवर्ष की सरकार के लिए अभी तक करना शेष है।

भारतवासियों के स्वास्थ्य की ओर भारत-सरकार कहाँ तक ध्यान देती है इसका ठीक ठीक अनुमान उस व्यय से किया जा सकता है जो वह अपने केन्द्रीय और प्रान्तीय कोष से स्वास्थ्य-विभाग पर करती है। भारत सरकार के स्वास्थ्य और शिक्षा-विभाग ने अपनी ९ जनवरी १९२८ ई॰ को लिखी एक चिट्ठी द्वारा मुझे सूचित किया है कि '१९१६-१७ ईसवी के वर्ष तक सार्वजनिक स्वास्थ्य का व्यय "चिकित्सा" के स्तम्भ में सम्मिलित किया जाता था।' यदि भारतवर्ष में निरक्षरता और रोग की प्रधानता है तो यह और भी उचित है कि उन राज्यों की अपेक्षा जहाँ अक्षर-ज्ञान प्रायः सबको है, सब प्रकार की शिक्षा का सर्व-साधारण में प्रचार है और लोग स्वास्थ्य के नियमों से भली भाँति लाभ उठाना जानते हैं, भारत सरकार शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अधिक धन व्यय करे। परन्तु वास्तविकता क्या है? मैंने जिस चिट्ठी का उल्लेख किया है उसमें मुझे बताया गया है कि इस कार्य के लिए सरकार केन्द्रीय और प्रान्तीय कोष से कुल मिलाकर १,२९,८६,४९८, रुपये वार्षिक व्यय करती है। १९१८-१९१९ ईसवीवाले वर्ष में जब भारतवर्ष में केवल इन्फ़्यूएञ्ज़ा से ६० लाख मनुष्य मर गये यह व्यय १,६६,४३,०५३; रुपये थे। इस सम्बन्ध में सबसे नवीन संख्या जो ज्ञात हुई है वह १९२४-२५ की है। उस वर्ष केन्द्रीय कोष से कुल मिलाकर २६,०७,२७१ रुपये व्यय किये गये। और प्रान्तीय कोषों से ३,०४,२०,१६९ रुपये। १९१९-२० ईसवी के सुधार-नियमों के अनुसार कार्य्य होने के समय से, अर्थात् भारतीय मंत्रियों के नियुक्त किये जाने के समय से उन्नति आरम्भ हुई है।