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दुखी भारत

जितनी कि मनुष्यों की। अर्थात् छोटे बड़े सब मिला कर २०,९०,००,००० पशु हैं। ये सब लगभग १७,००,००,००० बैलों के बराबर हैं। इसमें मुर्गी, कबूतर आदि पालतू पक्षियों की गणना नहीं की गई है। इसमें सन्देह नहीं कि इन पशुओं को चारा, घास, पात-तृण, अनाज के डण्ठल, जड़ें, बिनौला, खली, देकर और भूली आदि के अतिरिक्त कुछ पौष्टिक खाद्य भी देने की आवश्यकता है

"इसमें जरा भी सन्देह नहीं हो सकता कि पशुओं को चारे के अतिरिक्त उस अन्न का भी एक बड़ा भाग मिलता है जिसके सम्बन्ध में हमने यह अनुमान किया है कि वह केवल मनुष्यों के ही लिए पर्याप्त है। और सम्भवतः इस अन्न के पशुओं के दिये जाने के कारण ही मज़दूरों को कम मात्रा में भोजन मिलता है। धनी लोग जो घोड़े रखते हैं और यह चाहते हैं कि उनकी गौएँ खूब दूध दें तथा उनके बैल खूब काम करें, प्रायः इन कामों के लिए गल्ला खरीद कर रख लेते हैं। इस प्रकार वे अनाज का भाव मँहगा कर देते हैं और उनके निर्धन पड़ोसियों को कम भोजन मिलता है।.........

"अन्न का कुछ भाग, चोकर या रोटी गौओं को या काम करनेवाले बैलों और घोड़ों को प्रतिदिन पृथक खूराक के तौर पर दिया जाता है। इससे मैं यह परिणाम निकालने के लिए विवश हूँ कि गङ्गा के मैदान, पञ्जाब, और अन्य धनी बस्तियों में जो अनाज मनुष्यों के लिए आवश्यक है उसका एक बड़ा भाग पशुश्नों को खिला दिया जाता है और इस कारण बहुत से निर्धन लोगों को केवल आधापेट भोजन करके जीवन व्यतीत करना पड़ता है।............

"यदि अन्न की उत्पत्ति ५० प्रतिशत बढ़ा दी जाय तो पशुओं के स्वास्थ्य, हित और उन्नति में बड़ी सहायता मिलने लगे और इससे लोगों को भी बड़ी सहायता मिले क्योंकि उनके लिए पशुओं का परिश्रम बड़ा आवश्यक है और उनका दूध बड़ा मूल्यवान् है। जिन लोगों के सिद्धान्त और जेब उन्हें मांस खाने की आज्ञा देते हों उनके लिए तो कुछ कहना ही नहीं है।"

मिस मेयो की भांति मिस्टर लप्टन बार बार यह सौगन्द नहीं खाते कि इस अध्ययन में उनका कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं है। परन्तु वे 'पक्षपात-रहित हो कर वर्तमान भारत के सम्बन्ध में सत्य की कसोटी पर कसी हुई बातों को' उपस्थित करने की चेष्टा करते हैं। वे उन बुराइओं की ओर से दृष्टि नहीं फेर लेते जो भारतवर्ष में विद्यमान हैं किन्तु उनके सम्बन्ध में भारतवासियों की व्यवहारिक रूप से सहायता करने की दृष्टि से विचार करते