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दुखी भारत

इस उत्तर से भारतवर्ष के ग्वाला लोग 'फूका' के समान निर्दय व्यवहारों के नहीं ठहराये जा सकते। फिर भी हमारा यह कहना अत्यन्त उचित है कि भारतवर्ष में इतनी अधिक मात्रा में गोहत्या होना बिल्कुल एक नई समस्या है। यहाँ विदेशी लुटेरों के शासन का स्वार्थ राष्ट्र के स्वार्थ के बिल्कुल विपरीत प्रतीत होता है। सरकार ने मांस और चमड़े के विदेश भेजने के व्यवसाय में ब्राजील और दूसरे देशों के विदेशी व्यापारियों को बड़ी स्वतंत्रता दे रक्खी है। पश्चिम में युद्ध के पश्चात् से गायों की जो कमी हो गई है उसके कारण भारतवर्ष में दूध देनेवाले पशुओं की आफ़त आ गई है। विदेशी खरीदारों के प्रलोभन में पड़कर ग्वाले थोड़े से व्यापारिक लाभ के लिए फूका जैसी निर्दय यातनाओं को काम में लाकर एक या दो बार बच्चा दने के पश्चात् दूध देने वाली गायों को बिल्कुल बेकाम कर देते हैं। चैटर्जी महाशय लिखते हैं[१]:––

"जिन देशों के निवासी मांसाहारी होते हैं वहाँ वे एक विशेष प्रकार के पशुओं को केवल मांस के लिए पालते हैं।......वे अपने दूध देनेवाले पशुओं की हत्या करने की बात कभी नहीं सोचते। परन्तु हमारे देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। और 'अच्छी अच्छी दूध देनेवाली गाय शहरों को भेजी जाती हैं......... और एक बड़ी संख्या में उनकी हत्या की जाती है।'

चैटजी महाशय अपनी पुस्तक में यह शिकायत करते हैं कि:––

"देशी पशु-पालकों की दरिद्रता और भूर्खता से लाभ उठा कर विदेशों में मांस का व्यवसाय करनेवाले व्यापारी उत्तम पशुओं को प्रायः ऐसे सस्ते दामों में खरीद लेते हैं जो अर्थशास्त्र की दृष्टि से देखा जाय तो उनके वास्तविक मूल्य का आधा भी न होगा[२]।"


  1. चैटर्जी-कृत उसी पृष्ठ २७। अन्तिम वाक्य चैटर्जी महाशय ने सर जान उडरोफ़ का वक्तव्य उद्धत किया है।
  2. चैटर्जी कृत उसी पुस्तक से, पृष्ठ ३८। अन्तिम वाक्य चैटर्जी महाशय ने कृषि विभाग के १९१६ ईसवी के विवरण से उद्धत किया है।