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दुखी भारत

यूनान और रोम बिल्कुल असभ्य अवस्था में थे तब भारतवर्ष धन और वैभव का धाम था। इस देश में चारों ओर व्यवसाय कुशल लोगों की बस्तियाँ थीं। भूमि पर उनका परिश्रम अङ्कित हो रहा था। कृषकों के परिश्रम के बदले में प्रकृति उन्हें प्रतिवर्ष धन-धान्य के बहुमूल्य पुरस्कार से पुरस्कृत करती थी। चतुर बुनकर मुलायम और सुन्दर वस्त्र तैयार करते थे। कारीगरों ने ऐसे ऐसे चमत्कारपूर्ण भवनों की रचना की थी कि आज सहस्रों वर्ष की सभ्यता का प्रसार होने पर भी उनकी समता नहीं की जा सकती।......भारतवर्ष की प्राचीन स्थिति अवश्य असाधारण रूप से महत्तापूर्ण रही होगी।"

बौद्धकालीन भारतवर्ष के सम्बन्ध में श्रीयुत रिस डैबिडस कहते हैं[१]:––

"सब लोग सुरक्षित थे। सब लोग स्वतन्त्र थे। न ज़मींदार थे, न भिखमङ्गे। सर्वसाधारण मज़दूरी लेकर काम करने में अपना महान् अपमान समझते थे। केवल बड़ी विपत्ति आ पड़ने पर ही वे ऐसा कर सकते थे।"

परन्तु मिस मेयो को इतना धैर्य कहाँ कि वह इतनी प्राचीन बातों पर विचार करे। इसलिए हम केवल मुस्लिम शासन-काल की और ब्रिटिश-शासन के ठीक पहले के समय की बातों का ही उद्धरण उपस्थित करेंगे।

भारतीय सुधार-समिति, जिसमें पार्लियामेंट के ३७ सदस्य भी सम्मिलित हैं, अपने 'रिफार्म पैम्फलेट' नामक (९ वें) पर्चे में लिखती है:––

"कहा जाता है कि भारतवर्ष के निवासी नीच, पतित और अत्यन्त झूठे हैं।......यदि भारतवर्ष के बड़े से बड़े राजाओं को देखा जाय तो हमारे महा काहिल और स्वार्थी गवर्नर भी अत्यन्त योग्य और उदार प्रतीत होंगे। मुग़ल बादशाहों की विलासितापूर्ण स्वार्थपरता ने भारतनिवासियों को निर्बल और दरिद्र बना दिया था। उनके पूर्वज या तो विश्वासघाती अत्याचारी थे या काहिल व्यभिचारी।......इस देश के समाचार-पत्रों और जनता की

सहानुभूति के बल पर हमारे लिए यह बड़ा ही सरल है कि हम अपने पूर्व शासकों को नीच कहकर अपने आपको उच्च घोषित कर दें। हम अपनी कथाओं और अपने प्रमाणों को सर्वथा सत्य कहते हैं। परन्तु यदि हमें अपने से पूर्व के शासकों के सम्बन्ध में कोई अच्छी बात मिलती है तो हम उस पर


  1. बौद्धकालीन भारत, लन्दन, १९०३, पृष्ठ ४९।