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दुखी भारत

निर्दयता के भी प्रचुर प्रमाण मौजूद हैं पर क्या उनकी उदारता का भी कहीं कोई प्रमाण मिलता है?"

"इस प्रकार बड़े बड़े ग्रन्थ लिखाकर देशी राज्य व्यवस्थाओं और देशी नरेशों के चरित्र पर कुठाराघात किया जा रहा है ताकि उनके स्वत्वों को अपने अधिकार में किये रहने के लिए हमें उचित बहाना मिला रहे। ऐसी दशा में यहाँ यह बतला देने की आवश्यकता है कि प्रत्येक देशी 'ओलबियर' के स्थान पर हमारे यहाँ ईसाई 'रोलेंड' मौजूद हैं। अर्थात् यदि भारतवर्ष के मुसलमान शासक निर्दयी और लोलुप थे तो उनके समकालीन ईसाई शासक भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे। हम लोगों का यह फ़ैशन हो गया है कि हम पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी के भारतवर्ष की तुलना उन्नीसवीं शताब्दी के इँगलैंड के साथ करते हैं और परिणाम पर अपनी प्रशंसा करते हैं। एक बुद्धिमान् समालोचक का कहना है कि 'जब हम इँगलैंड के साथ किसी अन्य देश की तुलना करते हैं तब इँगलैंड से हमारा तात्पर्य केवल उस इँगलैंड से रहता है जैसा कि वह वर्तमान समय में है।‌ हम सुधारकाल के पूर्व के इँगलैंड पर कदाचित् ही ध्यान देते हैं। जो देश किसी अंश में भी हम से पिछड़े रहते हैं, उन्हें हम असभ्य और मूर्ख समझते हैं; उनकी स्थिति हमारे देश से कुछ ही समय पूर्व उत्तम क्यों न रही हो। उन्नीसवीं शताब्दी के इँगलैंड के साथ सोलहवीं शताब्दी के भारतवर्ष की तुलना करना उसी अंश तक उचित है जिस अंश तक ईसाई सन् की प्रथम शताब्दी के दोनों देशों की तुलना करना––जब भारतवर्ष सभ्यता के शिखर पर था और इँगलैड उसकी तलेटी में।"

गत शताब्दी में पार्लियामेंट के सदस्य श्रीयुत डब्लू॰ एम॰ टारेन्स ने लिखा था[१]:––

"प्राचीन भारतीय शासन-पद्धति को पतित स्वेच्छाचारिता और लोकमत की परवाह न करनेवाली कहना एक ऐसी भूल है जिसका कोई आधार नहीं है और जिसके समान भूल कहीं सुनने में नहीं आई। यह बहाना करना कि इस शासन-पद्धति ने जिनका अहित किया वे धर्मान्ध दास थे और वे उसी स्थिति में पड़े रहते यदि विदेशी सभ्यता तलवार बल पर इसमें हस्ताक्षेप न करती, अपने अत्याचार के ज्ञान को सुलाना और अपने राष्ट्रीय आत्म-प्रेम का

घमण्ड करना है। इस ढोंगी सिद्धान्त का ऐसे मनुष्यों ने खण्डन किया है


  1. एशिया में साम्राज्य-स्थापन लन्दन, पृष्ठ १००