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दुखी भारत

ईसवी में 'जेन्टिलमैन्स मैगज़ीन' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, लिखा था:––

"सूरत से मैंने घाटों को पार किया।......प्रातःकाल के करीब १० बजे का समय था। जब मैंने मरहठों के देश में प्रवेश किया तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानों मैं स्वर्णयुग के सरल और आनन्दमय प्रदेश में पहुँच गया हूँ। वहाँ प्रकृति में अब भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। और युद्ध और अकाल का किसी को पता नहीं था। लोग प्रसञ्जचित्त, पुरुषार्थी और खूब स्वस्थ थे और अतिथि-सत्कार का भाव चारों ओर विद्यमान था। प्रत्येक द्वार खुला रहता था और मित्रों, पड़ोसियों और अपरिचितों, सबका समान रूप से स्वागत किया जाता था।"

सर जान मालकम ने मरहठा शासक नाना फरनवीस के सम्बन्ध में अपनी सम्मति नीचे लिखे अनुसार प्रकट की थी[१]:--

"मुझे ऐसे देशों के देखने का कभी अक्सर नहीं मिला जहाँ इतनी अच्छी खेती होती हो, और खाद्य-सामग्री तथा व्यापार की वस्तुएँ इतनी अधिक मात्रा में उत्पन्न की जाती हों जितनी कि दक्षिणी मरहठा जिलों में।......पेशवा की राजधानी पूना अत्यन्त धन-सम्पन्न और गुलज़ार व्यापारिक नगर था। और दक्षिण भारत में भी इतनी खेती होती थी जितनी कि एक मरु-प्रदेश में सम्भव हो सकती थी।......

"मालवा को मैंने उजड़ी हुई दशा में देखा था। इसका कारण यह था कि इस पर भारतवर्ष के दल के दल लुटेरों ने अधिकार कर लिया था। परन्तु उस समय में भी मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बड़े बड़े शहरों के बीच में रुपयों का लेन-देन––बड़ी बड़ी रक़मों में––जारी था। साहूकारों की दशा उन्नति पर थी और प्रान्त से होकर व्यापारिक माल का खूब आना जाना जारी था।......वीमा के दफ्तर जो समस्त भारत में थे यहाँ भी अपना कार्य कर रहे थे। मैं नहीं समझता कि मालवा में हम लोगों के सीधे शासन से कृषि और व्यापार-सम्बन्धी उससे अधिक या उतनी भी उन्नति होती जितनी कि पुराने राजाओं और सरदारों के ये ग्य शासन के पुनः संस्थापन से हुई है। दक्षिणी मरहठा ज़िलों के सम्बन्ध में भी, जिनकी उन्नति के विषय में ऊपर लिखा

जा चुका है,......मैं नहीं समझता कि हमारे शासन में कोई व्यापारिक या कृषि-सम्बन्धी उन्नति हो सकती है। उनकी शासन-पद्धति औसत दर्जे पर


  1. रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ २८-९