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दुखी भारत


शताब्दी में भारतवर्ष की सम्पत्ति का ठिकाना नहीं था। उसके नरेशों के कोष सोने चाँदी की ईंटों और अमूल्य रत्नों से भरे थे। व्यवसाय और दस्तकारी की बड़ी उन्नति थी और विदेशों में बिक्री के लिए सब प्रकार की वस्तुएँ बहुत अधिक मात्रा में भेजी जाती थीं। बदले में भारतवर्ष को खूब सोना और चाँदी मिलती थी। एशिया, योरप और अफ्रीका के साथ भारतवर्ष का बहुत बड़ा व्यापार चल रहा था और भारत में बनी वस्तुओं की इन देशों में बिक्री से हमें बड़ा लाभ हो रहा था। हमारे सूती मलमल, रेशमी कपड़ों, ऊनी दुशालों और पीतल तथा कांसे के बर्तने की समस्त एशिया और योरप में धूम मची हुई थी। लगभग डेढ़ शताब्दी ले अधिक इँगलैंड भारतवर्ष से रेशमी और सूती कपड़े नील और मसाले ख़रीदता रहा है और बदले में उसे सोने चाँदी की ईंटें देता रहा है। इस काल में भारतवर्ष ने विदेशों से एक कौड़ी की भी वस्तु नहीं खरीदी। बस लिखता है कि दस वर्षों में, १७४७ से १७१७ ई॰ तक में इंगलैंड ने भारतीय वस्तुओं के लिए यहाँ ५,१२,४२३ पैड की लागत की सोने-चाँदी की ईंट भेजी थीं। इसके पहले भी यही औसत था। पर इसके पश्चात् भारतीय माल का खरीदना बन्द होगया*[१]

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस व्यापार से कितना महान् लाभ उठाया? यह कथा उस समय के समस्त इतिहासकारों ने लिखी है। मेकाले लिखते हैं:

"द्वितीय चार्ल्स के शासन-काल के अधिकांश भाग में कम्पनी की इतनी उन्नति हुई कि व्यापार के इतिहास में उसकी कहीं उपमा नहीं मिलती थी और इससे सम्पूर्ण राजधानी (लन्दन) आश्चर्य से चकित हो उठी थी और उसके प्रति ईयां करने लगी थी।.........कम्पनीको पुनार अधिकार दिये जाने के पश्चात् के २३ वर्षों में उस प्रसिद्ध और धनी प्रान्त (गङ्गा का डेल्टा) से वार्षिक खरीद की लागत ८,००० पैड से बढ़कर ३.००,००० पौड हो गई थी।" इसके आगे वे लिखते हैं कि-"इस संस्था (कम्पनी) को लाभ इतना होता था कि उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था।...... लाभ की अधिकता का कुछ पता इसी एक बात से चल सकता है कि १६७६

  1. * जे॰ ब्रूस-कृत 'ब्रिटिश भारत के उपाय' नामक पुस्तक से, पृष्ठ ३१६।