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भारतवर्ष-'दरिद्रता का घर'

हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि बस के अनुसार इंगलैंड ने भारतवर्ष को १७१७ ईसवी में अन्तिम बार सोना और चाँदी भेजा था। उसी वर्ष पलासी का युद्ध हुआ था। उसके पश्चात् फिर भारतवर्ष को सोना-चाँदी नहीं भेजा गया। इसी समय से चीन को भी बहुत कम सोनाचांदी जाने लगा था। पर चीन को यदा कदा यह उन अवसरों पर भेजा जाता था जब भारतवर्ष से भाल नहीं मिल सकता था। कम्पनी के सञ्चालक अपने मदरास और बङ्गाल के नौकरों को जो चिट्रियां दिखते थे उन सबमें यह बात स्पष्ट रूप से लिखी रहती थी। उनमें उनको ये हिदायते भी रहती थीं कि वे भारतवर्ष में सोने-चाँदी की जितनी ईंटे इकट्टी कर सके, करते रहे और मदरास तथा चीन से विलायत जानेवाले जहाजों द्वारा उन्हें बराबर भेजते रहें और पत्रोत्तरों में यह भी लिख दिया करें कि वे किस जहाज़ से कितना भेज रहे हैं*[१]

उस समय भारतवर्ष में कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा सोने-चाँदी की ईंटे इकट्ठी करने के लिए परिस्थिति बड़ी अनुकूल थी। मेकाले के शब्दों में 'तब धन समुद्रों में बह बह कर विलायत को जा रहा था।' और वाह आदि के यान्त्रिक आविष्कारों से पूर्ण लाभ उठाने के लिए इंगलैड में जिस बस्त का अभाव था, उसकी पूर्ति भारतवर्ष कर रहा था। भारतवर्ष से गई इस प्रचुर सम्पत्ति से इंगलैंड की नकद पू जी में बहुत बड़ी वृद्धि हो गई थी।

इससे यह स्पष्ट है कि जिस औद्योगिक काया-पलट पर इंगलैंड की आर्थिक उन्नति प्रारम्भ हुई वह एक-मात्र भारतीय धन की विपुल राशि के ही बल पर संभव हो सकी थी। भाप के इञ्जिन और कल-पुर्जों में जो महान् उत्पादन-शक्ति है उसका उपयोग इँगलेंड भारतवर्ष की उसी सम्पत्ति के बल पर कर सका है जो उसने इस देश से कर्ज नहीं लिया था बल्कि छीन लिया था और जिसके लिए उसने कोई सूद भी नहीं दिया। इस प्रकार भारतवर्ष की जो हानि हुई वही इंगलड का लाभ था। यह हानि भारत

  1. * जे॰ ब्रूस-लिखित "ब्रिटिश भारत के उपाय" नामक पुस्तक से, पृष्ठ ३१४-३१५