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भारतवर्ष—'दरिद्रता का घर'


क्लाइव के ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी से अलग होकर चले जाने के पश्चात् के पांच वर्षों में कम्पनी के नौकरों ने बङ्गाल के राजाओं और निवासियों से प्रत्येक उपाय ले जितना धन ऐंठ सकते थे उतना ऐंठने में एक भी बाक़ी नहीं लगा रक्खा। इस समय में जो 'व्यापारिक अत्याचार' किया गया वह विलियम बोल्टस् के शब्दों में भली भांति दर्शाया जा सकता है। ये महाशय कम्पनी के नौकर थे। इस सम्बन्ध में लिखी गई इनकी 'भारतीय समस्या पर विचार' नामक पुस्तक १७७२ ईसवी में प्रकाशित हुई थी। प्रोफ़सर मुइर का कहना है कि यह वर्णन 'ठोस-रूप से सत्य' है[१]

मिस्टर बाल्टस् अपनी पुस्तक के ७३ वें पृष्ठ पर लिखते हैं:—

"इस देश के निर्धन कारीगरों और व्यवसायियों के प्रति जिस कठोरता के साथ अत्याचार किया जा रहा है उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। कम्पनी ने इन लोगों पर इस प्रकार अधिकार कर रक्खा है मानों ये इसके क्रीत-दास हों।......बेचारे बुनकरों को सताने के लिए भांति भांति के अगणित उपाय प्रचलित हैं। कम्पनी के एजेन्ट और गुमाश्ते गांवों में उन सबको काम में लाते हैं। किसी पर जुर्माना कर दिया, किसी को जेल में बन्द कर दिया; किसी पर कोड़े लगाये, किसी से स्वेच्छानुसार कोई प्रतिज्ञापत्र लिखवा लिया; इत्यादि। इन अत्याचारों के कारण गांवों में बुनकरों की संख्या बहुत न्यून होगई है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि वस्त्र कम मात्रा में तैयार होता है, महँगा बिकता है और अच्छा नहीं मिलता। इसके साथ ही कर में भी बहुत कमी हो गई है। अब व्यवसाय में केवल कम्पनी ही रुपया लगाती है। किसी और को अधिकार नहीं रह गया। हाँ, कम्पनी के सर्वोच्च पदाधिकारी, जिनके हाथ में कम्पनी के व्यवसाय का प्रबन्ध रहता है निजी तौर पर पृथक् व्यवसाय में भी रुपया लगाते हैं। उस दशा में ये अपने लिए, कम्पनी के लिए और अपने कृपा-पात्रों के लिए जहाँ तक उनकी आत्मा आज्ञा देती है वहाँ तक व्यवसाय करते हैं। इसके अतिरिक्त योरप में पारस्परिक संघर्ष रोकने के उद्देश्य से कुछ विदेशी कम्पनियों को भी थोड़ी थोड़ी पूँजी के व्यवसाय करने की आज्ञा दे दी जाती है।...."

इस प्रकार कम्पनी के नौकरों ने देश के व्यापार को नष्ट कर दिया और अवरोध तथा अत्याचार की नीति से अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया।


  1. मुइर-लिखित ब्रिटिश भारत का निर्माण, पृष्ठ ८९