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दुखी भारत

ध्रूक ने इन सारी बातों को उस सेलेकृ कमेटी की रिपोर्ट में बड़े स्पष्ट रूप से रख दिया था जो बाद को हाउस आफ़ कामल्स की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी की करामातों की जाँच करने के लिए नियुक्त हुई थी:––

"व्यापार की इस नवीन पद्धति ने, जो पशुबल और सार्वजनिक कर की आय से अपना काम करती थी, बहुत शीघ्र अपने स्वाभाविक परिणाम को प्रकट कर दिया। बङ्गाल में व्यापार करनेवाले देशी और विदेशी सभी व्यापारी अत्यन्त उच्च स्वर से चिल्ला चिल्ला कर इसकी निन्दा करने लगे। देश की सम्पूर्ण व्यापार-नीति को इसने अवश्य बड़ी उलझन में डाल दिया होगा? और किसी की एक न सुनी होगी। इस देश के निवासियों की रक्षा का कोई उपाय नहीं सोचा गया। परन्तु योरपियन शक्तियों का विषय जरा गम्भीर था। सूबा-हाकिम ने कम्पनी के सन्चालकों को स्पष्ट रूप से लिख दिया कि विदेशी राष्ट्रों के साथ किसी न किसी प्रकार का सुलहनामा कर लेना चाहिए। और किसी सीमा तक उन्हें व्यापार करने देना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो जो समस्याएँ उपस्थित हो गई फ्रान्स के साथ, खुल्लम-खुल्ला युद्ध का रूप धारण कर लेंगी[१]

"१७७० ईसवी में उस भयङ्कर अकाल के पड़ने पर भी, जिसकी कहीं उपना नहीं मिल सकती थी, कम्पनी ने बङ्गाल में वस्त्र आदि बुनने के लिए लोगों को जो ठीके दिये थे उसको बलपूर्वक विभिन्न उपायों द्वारा उनसे पूरा करवाया। इस प्रकार कम्पनी ने व्यवसाय में जो लागत लगाई थी वह लोगों पर बल-पूर्वक लादी गई और अस्वाभाविक दशा में भी प्रतिवर्ष दृढ़ होती गई। इस पद्धति के आरम्भ-काल में ऋण का जो नियम था वह क्रमशः कम हो गया और ठीकेदारों को तथा कारीगरों को पेशगी रुपये दिये जाने लगे। इससे १७८० ईसवी को समाप्त होनेवाले चार वर्षों में, जब कि अधिक कर की आय को व्यापार में लगाने की नीति अन्तिम बार बन्द कर दी गई थी, राज्य कर की आय से योरपियन वस्तुओं की बिक्री से प्राप्त धन से, और अपने एकाधिकार के व्यापारों की आय से बङ्गाल की जो वस्तुएँ खरीदी गई उनका मूल्य १० लाख मुहरों से कम न रहा होगा या साधारण तौर पर बारह सौ हज़ार पौंड से कम न रहा होगा। बङ्गाल की जो वस्तुएँ विलायत भेजी गई उनका यह कम से कम मूल्य था। यद्यपि इस मूल्य के लिए भी सन्तोष नहीं किया जाता[२]। (इस रकम से ग्रेट ब्रिटेन की वस्तुओं की बिक्रा का मूल्य एक सौ हज़ार पौंड वार्षिक निकाल देना चाहिए)


  1. नवम विवरण, पृष्ठ ४७, बुक रचित "संगृहीत निबन्ध" भाग ३ डिग्बी द्वारा उद्घृत, पृष्ठ २८।
  2. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४७-४८