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दुखी भारत

"मैं न्याय के सिद्धान्त पर और आर्थिक मित-व्ययता के सिद्वान्त पर ऐसा करना चाहूँगा[१]।"

उन्होंने यह भी कहा था कि:––

"वर्तमान राज्य-कर के सम्बन्ध में भारतवासियों को जो शिकायत है वह, मैं समझता हूँ, केवल कर की रकम की ही शिकायत नहीं है। मैं सममाता हूँ जो रकम वसूल की जाती है उससे कहीं अधिक शिकायत उनको उसके प्रयोग से हैं। देशी राजवंशों के शासन काल में राज्य-कोष में देश का जितना धन जमा होता था, वह सब देश में ही व्यय भी होता था। परन्तु हमारे शासन काल में राज्य-कर का एक बड़ा भाग बाहर भेज दिया जाता है और उसका कोई बदला नहीं चुकाया जाता। [गत ६० या ७० वर्षों से इसी प्रकार राज्य का रुपया बहाया जा रहा है और यह घटने की अपेक्षा दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है......] हमारी शासन-पद्धति बिल्कुल स्पंज की भाँति काम करती है। वह गङ्गा के किनारे की समस्त अच्छी वस्तुओं को सोख लेती है और उन्हें टेम्स के किनारे लाकर निचोड़ देती है।......" (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं।)

हाउस आफ कामन्स की सेलेक्ट कमेटी ने १८३२ ईसवी में सर जान माल्कम की गवाही ली थी। ये महाशय १८२७ ईसवी में बम्बई के गवर्नर थे और भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य के निर्माण-कर्ताओं में से एक थे।

"क्या आपकी सम्मति में जनता की कृषि और व्यापार-सम्बन्धी विशेष उन्नति होने का कारण यह है कि देशी नरेशों के कुशासन के स्थान पर अब हमारा राज्य स्थापित हो गया है?"

"मैं इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक प्रान्त के सम्बन्ध में नहीं दे सकता।

परन्तु मैं वहाँ तक बतलाऊँगा जहाँ तक का कि मुझे अनुभव है। मैं नहीं समझता कि इस परिवर्तन से अधिकांश देशी रियासतों के निवासियों को व्यापारिक, आर्थिक या कृषि-सम्बन्धी लाभ पहुँचा है। कदाचित् पहुँच भी नहीं सकता। हाँ, इससे दूसरों को लाभ पहुँच सकता है। ईसवी में जब मैं वर्तमान ड्यूक आफ वेलिंगटन के साथ मरहठों के दक्षिणी जिलों में गया था तक मैंने वहाँ खेती और व्यापार की जैसी उन्नति देखी थी वैसी अन्यत्र कभी नहीं देखी.......।


  1. सेलेक्ट कमेटी का तृतीय विवरण, १८५३, पृष्ठ १९२०