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भारतवर्ष––'दरिद्रता का घर'

"मालवा के सम्बन्ध में......... मैं नहीं समझता कि सीधा हमारा शासन स्थापित होने से वहाँ कृषि और व्यापार की विशेष उद्धति होती; कदाचित् उतनी भी न होती जितनी कि वहाँ के प्राचीन राजाओं और सरदारों के योग्य शासन के पुनःसंस्थापन से हुई हैं।......

"मरहठों के दक्षिणी ज़िलों की उन्नति के सम्बन्ध में मैं पहले ही कह चुका हूँ ......यह कहने में मुझे ज़रा भी सङ्कोच नहीं कि कृष्णा नदी के किनारे पटवर्धनवंश के तथा अन्य राजाओं के जो प्रान्त हैं उनकी जैसी कृषि और व्यापारिक उन्नति मैने भारतवर्ष में कहीं नहीं देखी......के जितने कारण हो सकते हैं उनमें सर्वश्रेठ कारण यह है कि देशी शासन में ग्राम्य-पञ्चायतों तथा अन्य देशी संस्थाओं को अभिन्न रूप से सहायता मिलती है और राज्य में जितने मनुष्य बसे होते हैं सबको काम दिया जाता है। जो कि हमारे शासन में इतना सम्भव नहीं है[१]।"

१८५८ ईसवी में जब साम्राज्य का शासन कम्पनी के हाथ से निकल कर इंगलैंड के ताज के अधीन पाया तब सर जार्ज विगेट ने, जो बम्बई गवर्नमेंट के एक उच्च पदाधिकारी थे, अपने देशवासियों के विचारार्थ अपने चिम्नाङ्कित अनुभव लिखे थे:––

"यदि हमने केवल भारतवासियों के ही लिए नहीं बल्कि अपने लिए भारतवर्ष पर शासन किया है तो हम स्पष्ट रूप से ईश्वर और मनुष्य की निगाह में उस शासन के लागत की ओर अपनी जेब से कुछ व्यय न करने के कारण अपराधी हैं।

"हमारे शासन का भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके सम्बन्ध में इतना ही कह देना यथेष्ट है, कि हमारी वर्तमान पद्धति के अनुसार भारतवर्ष को जो कर इंगलैंड को देना पड़ता है वह अत्यन्त आक्षेप के योग्य है। किसी देश से कर वसूल करके उसी देश में उसके व्यय किये जाने का एक अर्थ है और किसी देश से कर वसूल करके दूसरे देश में उसके व्यय किये जाने का बिल्कुल दूसरा।......

"ग्रेट ब्रिटेन भारत से जो लेता है वह, चाहे न्याय की तुला पर तोला चाहे उस पर हमारे सच्चे स्वार्थ की दृष्टि से विचार किया जाय, प्रत्येक


  1. १८३२ की सेलेक्ट कमेटी के सामने दी गई गवाहियों का विवरण, भाग ६, पृष्ठ ३०, ३१