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दुखी भारत

संयुक्त राज्य अमरीका के एक-ईश्वरवादी संप्रदाय के मन्त्री डाक्टर जे॰ टी॰ सन्डर लेंड अपनी 'भारतवर्ष में अकाल के कारण' नामक पुस्तिका (पृष्ट २२) में लिखते हैं कि 'भारत के निवासियों की दरिद्रता का सबसे बड़ा कारण यह है कि यहाँ की सम्पत्ति विदेश को ढोई चली जा रही है।

भारतवर्ष इँगलैंड को जो राजदण्ड देता है और एक डेढ़ शताब्दियों से भी अधिक काल से दे रहा है, या भारतवर्ष की सम्पत्ति का इँगलैंड के लिए जो निकास हो रहा है, उसके सम्बन्ध में ऊपर विभिन्न लेखकों के जो मत दिये गये हैं, उन्हीं से समाप्त नहीं हो जाता। वास्तव में यदि कोई चाहे तो ऐसे उद्धरणों से एक बड़ा ग्रंथ भर सकता है। इसके अतिरिक्त हमने बुद्धिमानी के साथ उन ब्रिटिश राजनीतिज्ञों (जिन में सर हेनरी काटन––आसाम के भूतपूर्व चीफ कमिश्नर और पार्लियामेंट के पुराने सदस्य; बम्बई कौंसिल के भूतपूर्व सदस्य और पार्लियामेंट के पुराने सदस्य सर विलियम बेडरबर्न; पार्लियामेंट के भूतपूर्व सदस्य श्रीयुत डब्लू॰ एस॰ केन; भूतपूर्व भारतमन्त्री श्रीयुत ए॰ ओ॰ ह्मूम के सहश कई एक प्रभावशाली एँगलो इंडियन शासक और कितने ही अन्य सज्जन हैं) की सम्मतियों को रोक रखा है जिन्होंने किसी न किसी प्रकार प्रकटरूप से भारतीय राष्ट्रीयता का साथ दिया है। इसी प्रकार हमने स्वयं भारतीयों की सम्मतियों का भी उल्लेख नहीं किया।

यह स्पष्ट है कि १७५७ से १८५७ तक के १०० वर्षों में या वर्तमान समय तक में जो रक़म भारतवर्ष से विलायत को भेजी गई है उसका, ठीक ठीक अनुमान उस कमी से नहीं लगाया जा सकता जो व्यापार में विदेश को दिये गये धन की अपेक्षा विदेश से प्राप्त धन में हुई। क्योंकि इसमें वह सार्वजनिक ऋण भी जोड़ा जाना चाहिए जो इस समय में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर किया था और वह धन भी जुड़ना चाहिए जो सोने-चांदी की इंटों और रत्नों के रूप में विलायत भेजा गया पर उसका कहीं हिसाब नहीं दिखाया गया।

अँगरेज़ों की भारत-विजय करने की खूबी इस बात में है कि इस विजय में आदि से लेकर अन्त तक ब्रिटिश को अपने पास से एक पैसा भी नहीं खर्च करना पड़ा। अँगरेज़ों ने भारतवर्ष को इसी के रुपये और इसी के रक्त से