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भारतवर्ष––'दरिद्रता का घर'

जीता है। इसके पश्चात् एशिया में ब्रिटिश ने देश जीतने, व्यापार बढ़ाने, अन्वेषण करने आदि में जो भी धन व्यय किया वह सब भारत के कोष से चुकाया गया। जो लाभ हुआ वह सब का सर अँगरेज़ों की जेब में गया और जो हानि हुई वह सब की सब भारत के मत्थे मढ़ी गई।

श्रीयुत्त आर॰ सी॰ दत्त बतलाते हैं कि भारतवर्ष की आय व्यय से सदैव अधिक होती रही है।

"कम्पनी के १०० वर्षों के शासन में भारतवर्ष के भत्ये जो ऋण मढ़ा गया उसका कारण वह व्यय था जो इँगलेंड में किया जाता था।"

१७९२ ईसवी में भारतवर्ष पर कुल ऋण, जिसका ब्याज दिया जाता था, ७० लाख से कुछ अधिक था। १७९९ ईसवी में वह एक करोड़ हो गया। इसके पश्चात् लार्ड वेलेज़ली के युद्ध आरम्भ हुए और १८०५ ईसवी में भारतवर्ष पर २ करोड १० लाख का ऋण होगया। १८०७ ई॰ में यह २ करोड ७० लाख हुआ। १८२९ में यह ३ करोड़ तक पहुँच गया। भारतवर्ष पर कुल ऋण (रजिस्टर्ड और ख़ज़ाने के नोट का ऋण तथा डिपाज़िट और होम बांड का ऋण) ३० अप्रेल १८३६ ईसवी को ३,३३,५५, ५३६ पौंड था[१]। १८४४-४५ ईसवी में ४,३५,००,००० पौंड हो गया। इसमें अफ़ग़ानिस्तान के साथ किये गये भारी युद्ध का व्यय भी सम्मिलित था। इस युद्ध में कुल मिलाकर ५ करोड ५० लाख व्यय हुआ था। इँगलेंड ने इस व्यय में अत्यन्त न्यून भाग लिया था; यद्यपि जोन ब्राइट के शब्दों में 'इस युद्ध का सम्पूर्ण व्यय इँगलैंडनिवासियों पर कर लगाकर वसूल करना चाहिए था क्योंकि यह युद्ध अँगरेज़ी मन्त्रिमण्डल की आज्ञा से हुआ था और इसका उद्देश्य अँगरेज़ों का हित-साधन अनुमान किया गया था।

सिन्ध को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित करने और पञ्जाब की लड़ाईयाँ लड़ने में हार्डिंज और डलहौसी ने १८५०-५१ में इस ऋण को बढ़ाकर ५


  1. आर॰ सी॰ दत्त लिखित "विक्टोरियाकालीन भारत" पृष्ठ २१५, १६ और पादटिप्पणी।