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दुखी भारत

दिल खोल कर मेरा स्वागत करने लगे। और कभी कभी बिना मेरे पूछे भी अपने सम्बन्ध की विचित्र और मनोरञ्जक बातें बताने लगे।'*[१] इन सब आडम्बरों के होते हुए भी, एक ईसाई मिशनरी की हैसियत से, एबे को अपने काम में जैसा कि वह स्वयं स्वीकार भी करता है अत्यन्त लज्जाजनक असफलता हुई। वह लिखता है—'अपने आपको इस देश के रस्म-रिवाजों के अनुकूल बनाने, बहुत सी दशाओं में यहाँ के बाशिन्दों के विरोधी भावों को आलिङ्गन करने, उन्हीं की तरह रहने, और एक वास्तविक हिन्दू छोड़ कर और सब कुछ बनने के प्रयत्न में मुझे अत्यन्त संयम और परवशता से काम लेना पड़ा है। संक्षेप में इतना ही कह देना यथेष्ट होगा कि कुछ आदमियों को ठीक रास्ते पर लाने के लिए मुझे अनेक आदमियों के लिए अनेक रूप धारण करने पड़े हैं। सब बाते मुझे किसी हिन्दू को ईसाई बनाने में ज़रा भी सहायक सिद्ध न हुईं। ईसाई मिशनरी की हैसियत से भारतवर्ष में मेरा जो लम्बा समय बीता उसमें मैं कुल दो सौ से लेकर तीन सौ के भीतर स्त्री-पुरुषों को ईसाई बना सका, वह भी एक तद्देशीय ईसाई धर्मप्रचारक की सहायता से। इस संख्या में भी दो तिहाई जाति-च्युत या भिखारी और शेष कई एक शूद्र जातियों से बहिष्कृत मारे मारे फिरनेवाले लोग थे। ये लोग बे-सहारा होने के कारण विवाह करने या ऐसे ही और किसी दिल-पसन्द उद्देश्य से ईसाई†[२] हुए थे। "एबे ने अपने प्रचार कार्य में असफलता देखकर दूसरे तरीके से ईसाई धर्म्म की सेवा करने का निश्चय किया था। वह लिखता है :‡[३]

"जिस उद्देश ने मेरे (इस पुस्तक के लिखने के) निश्चय को सबसे अधिक प्रभावित किया वह यह है। मेरे दिल में यह बात पैदा हुई कि मैं मूर्तिपूजा और बहु-देवोपासना की बुराइयों का सञ्चा चित्र खींचूँ तो वह अपनी कुरूपता से ईसाई धर्म की सुन्दरता और पूर्णता का प्रभाव पड़ने में सहायक होगा। लैसी डामोनिया के लोग अपने बच्चों को मदिरा-पान की बुराई से भयभीत करने के लिए उनके सामने जो शराब के नशे में चूर गुलामों को उपस्थित करते थे वह यही ढङ्ग तो था।"


  1. * डुबोइस पृष्ठ, ८
  2. † डुबोइस की किताब के तीसरे (आक्सफोर्ड) संस्करण की सम्पादकीय भूमिका, पृष्ठ २६, २७
  3. ‡ वही पुस्तक, लेखक की भूमिका, पृष्ट, ९