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भारतवर्ष-'दरिद्रता का घर'


श्रीयुत के॰ टी॰ शाह ने भारतवर्ष का जो कुल धन बाहर जाता है उसकी बड़ी गवेषणा-पूर्ण व्याख्या की है। उनके अनुमान का सार नीचे दिया जाता है:-

रुपया
गृह-व्यय ५०.०० करोड़
विदेशी पूँजी पर ब्याज ६०.०० करोड़
विदेशी रेलवे कम्पनियों को दिया गया भाड़ा ४१.६३ करोड़
बैंक कमीशन १५.०० करोड़
विदेशी व्यापारियों और नौकरों की भारतवर्ष में कमाई ५३.२५ करोड़
… कुल २१९.८८ करोड़

या पूर्ण अङ्कों में इसे २२० करोड़ कह सकते हैं।

इसके पश्चात् मिस्टर शाह एक दीर्घ काल से प्रचलित व्यापार के अङ्कों पर विचार करते हैं और वर्तमान अवस्था के सम्बन्ध में अपनी सम्मति निम्नलिखित शब्दों में प्रकट करते हैं*[१]:-

"वर्तमान समय (११२३-२४) में अवस्था यह है। विदेशी लेन देन का हिसाब चुकता करने पर व्यापार में भारतवर्ष को १५० करोड़ की बचत होती है। परन्तु उस पर जो तकाज़ा होता है उसका योग १७८ करोड़ तक पहुँच जाता है। इस प्रकार भारत प्रतिवर्ष लगभग ३० करोड़ का ऋणी हो जाता है। यह ठीक है कि प्रकट रूप से उसे यह ऋण चुकाना नहीं पड़ता। पर यह उसी के नाम पर लिख लिया जाता है और इस प्रकार यह भारतवर्ष की उपज के स्थायी रूप से गिरवी हो जाने में सहायक होता है।"

 

 

  1. *"भारत का धन और उसकी कर सहन की शक्ति" पृष्ठ २३६