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पचीसवाँ अध्याय
बुराइयों की जड़––दरिद्रता

"भारतवर्ष दिनों दिन शक्ति-हीन होता जा रहा है। हमारे शासन के अधीन जो महान् जन-समुदाय है, उसका जीवन-रक्त शिथिल पड़ गया है, तिस पर भी वह बड़ी शीघ्रता के साथ कम होता जा रहा है।"

––एच॰ एम॰ हिंडमैन

('भारत का दिवाला' नामक पुस्तक में, पृष्ठ १५२)

श्रीयुक्त डब्ल्यू॰ एस॰ लिली अपनी 'भारतवर्ष और उसकी समस्याएँ' नामक पुस्तक (पृष्ट २८४-५) में लिखते हैं:––

"किसी राष्ट्र की उन्नति की पहचान यह नहीं है कि वह विदेशों को बहुत माल भेजने लगा है, दस्तकारी और अन्य व्यवसाय बहुत बढ़ गये हैं––तथा उसने अनेक नगर बसा लिये हैं। कदापि नहीं। उन्नति-शील देश वह है जहाँ के निवासियों का बृहत् समूह मानव-जीवन––अल्प व्यय में सुख का जीवन व्यतीत करने के योग्य आवश्यक वस्तुओं को कम से कम परिश्रम से उत्पन्न कर सके। क्या इस कसौटी पर कसने से भारतवर्ष समुन्नत कहा जा सकता है?

" 'सुख' शब्द का प्रयोग वास्तव में भौगोलिक परिस्थितियों से सम्बन्ध रखता है। भारत जैसे गर्म देश में सुख का आदर्श अत्यन्त निम्न है। साधारण वस्त्र और साधारण भोजन; यही यथेष्ट है। एक जलपूर्ण कूप, थोड़ी सी खेती के योग्य भूमि, एक छोटा सा बग़ीचा––इन्हीं से भारतीय के हृदय की अभिलाषाएँ तृप्त हो जाएँगी। यदि आवश्यकता हो तो इसमें उनके काम के कुछ आवश्यक पशु भी सम्मिलित कर दीजिए। बस भारतीय प्रजा का इतना ही आदर्श है। इसे भी बहुत कम लोग प्राप्त कर पाते हैं। भारतवर्ष में लाखों किसान ऐसे हैं जो केवल आधी एकड़ भूमि की सहायता से जीवन से युद्ध कर रहे हैं। उनके अस्तित्व से और भूख से दिन-रात युद्ध होता रहता है। युद्ध का अन्त प्रायः उनकी मृत्यु में होता है। उनके सामने यह समस्या नहीं है कि वे मनुष्य का जीवन––अपने छोटे सुख के आदर्श का जीवन––व्यतीत करें; परन्तु यह समस्या है कि वे किसी प्रकार जीते रहें, मर न जायँ।