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दुखी भारत

उन आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं होती जिनसे शरीर में प्राण बना रह सकता है। उनका जीवन अत्यन्त दरिद्रता में व्यतीत होता है।'

सर चार्लस इलियट ने, जो पहले आसाम के चीफ़ कमिश्नर थे, १८८८ ईसवी में लिखा था––'मुझे यह लिखने में ज़रा भी सङ्कोच नहीं कि आधे से अधिक किसान वर्ष के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक यह भी नहीं जानते कि 'पेट भर भोजन करना किसे कहते हैं।'

'इंडियन विटनेस' नामक ईसाइयों के एक समाचार पत्र में एक बार यह टिप्पणी प्रकाशित हुई थी कि 'यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि १०,००,००,००० भारतवासी ऐसे हैं––जिनकी वार्षिक आय ५ शिलिंग प्रति मनुष्य से अधिक नहीं होती।'

एक अमरीकन मिश्नरी ने १९०२ ईसवी में दक्षिण-भारत से लिखा था––"गत वर्षे (१९०१) सितम्बर मास के ३ सप्ताह के दौड़े में मुझे जैसा दुःखद अनुभव हुआ है वैसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। मेरे खेमे को लोग रात-दिन घेरे रहते थे और मेरे कानों में केवल एक वाक्य गूँजता रहता था; 'हम बिना भोजन के मरे जा रहे हैं।' लोग दूसरे या तीसरे दिन एक बार भोजन करके जीवन व्यतीत कर रहे हैं। एक बार मैंने ३०० व्यक्तियों की एक धार्मिक सभा की आय की बड़ी सावधानी के साथ परीक्षा की तो मुझे ज्ञात हुआ कि औसत दर्जे पर एक मनुष्य की आय दिन भर में एक फार्दिंग से भी कम होती है। वे जी नहीं रहे थे, किसी प्रकार जीवधारियों में अपनी गिनती करा रहे थे। मैंने ऐसी झोपड़ियों में जाकर देखा है जहाँ लोग मरे हुए ढोरों को खाकर गुज़र कर रहे थे। फिर भी यह दशा, दुर्भिक्ष की दशा नहीं समझी जाती थी! ईश्वर के नाम पर कोई कहे कि यह दुर्भिक्ष नहीं है तो क्या है? भारत की अधिक निर्धन श्रेणियों की दशा अत्यन्त दरिद्रता की दशा है; असाधारण अवस्था है। जीवन अत्यन्त संकुचित और कठोर अवस्था में बीत रहा है। और भविष्य में किसी प्रकार के सुधार की आशा भी प्रतीत नहीं होती। एक ६ मनुष्यों की गृहस्थी––घर, बर्तन, खाट, वस्त्र आदि मिलाकर––१० शिलिंग से भी कम मूल्य की होगी। ऐसे कुटुम्ब की औसतन आय प्रति व्यक्ति के हिसाब से ५० सेंट मासिक से अधिक न होगी और