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बुराइयों की जड़––दरिद्रता

प्रायः उसके आधे से कुछ ही ऊपर होती हैं। इसलिए यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि इस आय से शिक्षा, सफ़ाई या गृह-निर्माण के लिए बहुत नहीं व्यय किया जाता[१]"

पार्लियामेंट की नीली पुस्तक में भारतवर्ष की १८७४-७५ की नैतिक और आर्थिक उन्नति के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन जाता है:––

"कलकत्ता में ईसाई धर्म प्रचारकों का जो सम्मेलन हुआ था उसमें बङ्गाल की प्रजा की अत्यन्त शोचनीय और वृणित अवस्था पर विचार किया गया था। इस बात का प्रमाण है कि उन्हें बहुत से कष्ट भोगने पड़ते हैं और उन्हें अत्यन्त आवश्यक वस्तुओं की भी कमी प्रायः सदा ही बनी रहती है।...पश्चिमोत्तर प्रान्तों में इस शताब्दी के आरम्भ से लेकर अन्त तक मज़दूरों की मज़दूरी में कोई अन्तर नहीं पड़ा। और लगान देने पर कृषक के पास जो बच रहता है वह उसके परिश्रम का मूल्य भी नहीं होता।············बहुत से लोग मोटे अनाज खाकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है और लकवा मार जाता है।············कृषक-समुदाय में इस अत्यन्त गरीबी का होना भी एक ऐसा कारण है जिससे कृषि और जुताई आदि में किसी प्रकार का सुधार होना मुश्किल हो जाता है।"

श्रीयुत एच॰ एम॰ हिंडमैन अपनी 'भारतवर्ष का दिवाला' नामक पुस्तक में ७४ पृष्ठ पर लिखते हैं:––

"भारतवर्ष के निवासी दिनों दिन दरिद्र होते जा रहे हैं। लगान वास्तव में ही नहीं, परिस्थिति के साथ उनका जहाँ तक सम्बन्ध है उसको देखते हुए भी बहुत अधिक है। एक के पश्चात् दूसरे अभावों से दरिद्रता का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता जा रहा है। अकाल जल्दी जल्दी पड़ रहे हैं। अधिकांश व्यापार ऐसे हैं जो दरिद्रता को बढ़ाने वाले हैं और लोगों को आवश्यकता से अधिक कर-वृद्धि की चक्की में पीस रहे हैं। इन बातों के अतिरिक्त एक भली भाँति

सुसंगठित विदेशी शासन भी देश की सम्पत्ति-विकास का एक भयङ्कर कारण है।"


  1. "डिग्बी भारतवासियों की दशा" (१९०२) पृष्ठ १४––१५।