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दुखी भारत

उनकी सम्मति में इन कुटुम्बों को स्वस्थ अवस्था में रखने के लिए यह आय यथेष्ट है। वे कहते हैं—"कुछ कारणों से इस समय यह उचित नहीं है कि उनके सुख में कुछ और वृद्धि की जाय।"

रायबरेली के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर अरविन लिखते हैं:—

"सब कृषक साधारण समय में और कुछ चुने चुने सब ऋतुओं में यथेष्ट भोजन पाते हैं। परन्तु कुछ लोग जब फ़सल अच्छी नहीं होती तब भूख से पीड़ित होते हैं और कुछ लोग फसल कटने के समय के अतिरिक्त—जब अन्न खूब इफ़रात रहता है और सरलता से मिल जाता है—शेष सब काल में भूख भूख चिल्लाया करते हैं। मैं नहीं समझता कि जांच में शहरों के निर्धन लोगों को भी सम्मिलित करना ठीक होगा? इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता कि वे भोजन की तङ्गी के कारण गांववालों से भी अधिक दुःख सहते हैं; विशेष कर अभागिनी पर्देनशीन स्त्रियाँ और वे कुलीन लोग जो इस संसार के मायाजाल में आ फँसे हैं, निर्धनता के कारण अपनी शेष जायदाद बेच बेचकर गुज़र कर रहे हैं और भिक्षा माँगने से शरमाते हैं। अनाज के भाव में जितनी ही तेज़ी होती है उतनी ही उनकी पीड़ा भी बढ़ जाती है। ऐसे लोगों के लिए गल्ले की महँगी का अर्थ है, आधी मृत्यु। हाँ उत्पन्न करनेवाले को, जो वस्तु उसने उत्पन्न की है उसका मूल्य बढ़ जाने से, लाभ होता है।"

वायसराय की कौंसिल के भूतपूर्व सदस्य और कर-विभाग के अनुभवी सदस्य श्रीयुत ट्वायनबी सी॰ एस॰ एल॰ ने कहा कि:—

"इस जांच का जो परिणाम निकलता है वह यह है कि कृषकों में ४० प्रतिशत ऐसे हैं जो पेट भर भोजन नहीं पाते। वस्त्र और मकान की तङ्गी का तो कुछ कहना ही नहीं। जीवित रहने और काम करते रहने के लिए तो उनके पास यथेष्ट सामग्री होती है परन्तु वे कुछ समय तक दिन में एक बार खूब कसकर खाने के लिए प्रायः बड़े बड़े उपवास करते रहते हैं।"

१८९३ ईसवी के पायनियर में ग्रीरसन के निकाले अङ्कों का सार इस प्रकार दिया गया था:—

"संक्षेप में, मजदूरी करनेवाली समस्त जनता और कृषकों तथा कारीगरों के १० प्रतिशत को, या सम्पूर्ण जनता के ४५ प्रतिशत को भोजन का कष्ट, या