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भारत के धन का अपव्यय-समाप्त


इस कंपनी का जन्म १८४६ ईसवी में हुआ था। यह बाटे पर काम करती रही। परन्तु १८४९ ईसवी में इसके बीस-बीस पौंड के हिस्से २५ से ३०.६२ प्रतिशत लाम के साथ बेचे गये थे। गारंटी-पद्धति के समय में कम्पनी जो अपव्यय करती रही और जिसका भार भारत को वहन करना पड़ा उसका अनुमान इस बात से किया जा सकता है कि १८८० ईसवी तक जी॰ आई॰ पी॰ पर जहाँ प्रतिमील १,९५,९४५ रु॰ व्यय बैठता था वहीं उसके पास की नागपूर-छत्तीसगढ़ और घोंद-मनमाड़ स्टेट रेलों पर प्रतिमील क्रमशः ५७,३१५ रू. और ७१,७५६ रु. व्यय होता था*[१]

थोड़े में सस्ती पूँजी की यह कथा है। तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जो कम्पनियां लोकोपयोगी कार्य्यों के लिए इतने सस्ते दर में पूँजी लगाती थीं और जो घाटे के साथ काम करती हुई प्रतीत होती थीं ये ऐसी परिस्थिति में भी अपने हिस्से यथेष्ट लाभ के साथ बेच दिया करती थीं।

१८७२ ईसवी में पार्लियामेंट-द्वारा नियुक्त एक जांच कमेटी के सम्मुख गवाही देते हुए श्रीयुत थार्नटन ने कहा था:-

"मेरा विश्वास है कि भारत में रेल चलाने के लिए लगाई गई पूँजी की गारंटी न दी जाती तो बिना गारंटी के भी इस काम के लिए वहाँ धन भेजा जाता। इस बात पर विचार करते हुए, कि यह देश दिनों दिन धनी होता जा रहा है और एक बड़ी रकम का इंगलैंड में व्यापार में न लग सकने के कारण दक्षिणी अमरीका और अन्य देशों को भेजा जा रहा है, मैं यह नहीं सोच सकता कि ऐसी दशा में अधिक समय तक भारत की अवहेलना की जाती†[२]

  1. *२९ नवम्बर १९२५ के 'पीपुल' (लाहौर) में 'भारतीय रेल-पथ के रचयिता श्रीयुत सी॰ पी॰ तिवारी का एक लेख।
  2. † आर॰ सी॰ दत्त द्वारा उनकी पुस्तक 'विक्टोरिया-कालीन भारत में उद्धृत। पृष्ठ ३५४।