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दुखी भारत

पारसी अर्थ-शास्त्र-विशारद श्रीयुत डी० ई० वाचा, जो राजनीति में सरकार के ही खुशामदी टट्ट माने जाते हैं, लिखते हैं:-

"सच पूछा जाय तो भारतीय व्यय के सम्बन्ध में १८९६-९७ में जो शाही जांच कमीशन नियुक्त हुआ था और जो वेल्बी कमीशन के नाम से विख्यात है उसके विवरण में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि १८४८ से १८९५ तक का समस्त भारतीय रेलों का व्यय भारत सरकार को, अर्थात् भारत के : कर-दाताओं को, पूरे ५५ करोड़ देने पड़े थे। और यद्यपि तब से बराबर लाभ होते रहे हैं तथापि भारत सरकार की रेलवे हिसाब की बही में अभी उसके ऊपर रेलों का ४० करोड़ का ऋण बाकी ही है।

"केवल १८९९-१९०० से भारतीय रेलों ने पलटा खाया है और भारतीय कर-दाताओं की उस बृहत् पूजी के लिए, जो १९१० के सरकारी विवरण में ४३० करोड़ लिखी हुई है, कुछ कमाया है। १९०४-५ से समस्त रेलवे-कम्पनियों के लाभ का औसत ३ करोड़ रुपये वार्षिक होने लगा है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ रेलों से लाभ हो रहा है। पर इसमें भी लन्देह नहीं कि कुछ घाटे के साथ चल रही हैं। यह ३ करोड़ वार्षिक का लाभ घाटा निकाल देने पर हुआ है। पैदा करनेवाली रेलों से जो बड़ा लाभ होता है उसे घाटे के साथ चलनेवाली रेले हड़प जाती हैं। सरकारी वार्षिक रिपोर्ट के विवरण-पत्र नंबर में प्रत्येक रेलवे की आर्थिक कारगुजारी कर वर्णन रहता है। उससे यह बात बड़ी सरलतापूर्वक जानी जा सकती है।"

मिस्टर वाचा अपनी व्याख्या का सारांश यह बतलाते हैं कि 'भारतीय रेलों के व्यय का इतिहास आदि से अन्त तक एक समझ में न आ सकनेवाली अन्धकारमय कथा है।

रेलवे-प्रबन्ध-विभाग की ओर से भारतीय यात्री-जनता की आवश्यकताओं की जो अवहेलना की जाती है उसका वर्णन, मिस्टर वाचा इस प्रकार करते हैं:-

"भारतीय रेलवे-नीति का सबसे अक्षम्य और बुरा स्वरूप यह है कि इसके अधिकारी लोग भारतीय जनता की आवश्यकताओं और इच्छाओं की अत्यन्त उपेक्षा करते हैं। इस उपेक्षा-कृत जनता में वे लोग हैं जो प्रतिवर्ष लाखों की सँख्या में औसतन ३६ मील प्रतिमनुष्य के हिसाब से यात्रा करते हैं और जिनसे टिकट-विभाग में सबसे अधिक प्राय-करीब १३ करोड़ रुपये वाषिक होती