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भारत के धन का अपव्यय-समाप्त


के नीचे गड्ढों में एकत्रित करके रक्खा जाता था-की अधिकता से वास्तविक अकाल नहीं पड़ने पाता था। रागी पृथ्वी के भीतर चालीस-चालीस और पचास-पचास वर्षों तक ज्यों का त्यों बना रहता था। और आवश्यकता पड़ने पर निकाला जाता था। जान पड़ता है अकाल के केवल दर कमिश्नरों ने, केयर्ड और सल्लिवन ने इस प्रथा का महत्त्व समझा था।..........

"हमें यह विश्वास करने का कारण है कि रेलों के प्रचलित हो जाने से कृषक लोग या लो तात्कालिक लाभ की लालच से या वर अदा करने की विवशता से अन्न बेच देते हैं। और भोजन के स्थान पर रुपये इकट्ठा करके रखने लगे हैं। परन्तु ने रुपये या गहने नहीं खा सकते: खेतों में खाद देने के लिए ईधन नहीं खरीद सकते है और अपने जमा किये हुए रुपयों से श्रद्धालु के दिनों में चौगुने मूल्य में भोजन खरीदते हैं। अकाल के कमिश्नरों का कहना है कि इस प्रकार इस लम्बी दौड़ के अन्त में उन्हें लाभ होने में सन्देह ही है। और फिर मजदूर लोग जिनके पास भूमि नहीं होती और जो रूपये खरीद कर रखने के लिए कुछ उत्पन्न नहीं करते, अकाल के दिनों में बाजार-भाव को सर्वथा अपनी शक्ति के बाहर पाते हैं। तब सरकार 'सहायता देने के लिए कार्य्यों के साथ उनकी रक्षा करने आती है। रेलें आश्चर्यजनक लाभ उठाने लगती हैं-वास्तव में अकाल और युद्ध दोनों देश के लिए घातक हैं, परन्तु विदेशी सूदखोरों के लिए ये ईश्वरीय उपहार के समान पाते हैं-भारतीय सरकार आनन्द के साथ अपने सार्वजनिक हित के कार्यों को प्रारम्भ करती है और ब्रिटिश जनता जिसका इन कार्यों में स्वार्थ रहता है, उसकी प्रशंसा करती है। सरकार इस बात का बिलकुल उल्लेख नहीं करती कि बीते दिनों में उसने कर की आय से ३,००,००.००० पौंड व्याज में दे दिये हैं। यदि यह धन कृषकों की जेब में बना होता तो वे बड़े मजे में बुरे दिनों में अपनी रक्षा कर सकते थे और सजदरों को भी इससे लाभ पहुँच सकता था। परन्तु सर जान स्ट्रेची प्रश्न के इस अङ्गकी सर्वथा उपेक्षा करते हैं। अकाल के दिन में कृषकों को सहायता प्रादि देने के लिए सरकार जो काम खोलती है उसी पर वे पूर्ण संतोष प्रकट करते हैं। और भागे पड़नेवाले अकालों में सहायता पहुँचाने के लिए वे और भी रेल निकलवाने का हट करते हैं। आप सोचते होंगे कि उदार ब्रिटिश पूँजीपतियों के दान से भारत में रेलों का निर्माण हुआ है। परन्तु वात ऐसी नहीं है। इसमें भारत के आधा पेट खाकर जीवन व्यतीत करनेवाले हिन्दुओं की ख़ूराक लगी है। ऊपर जिस ३,००,००,००० पौंड' का उल्लेख किया गया है वह भारतीय कृषकों की कर की आय का धन है। भारत के कोप से यह धन भारत में रेलें चलाने के लिए व्यय किया गया था। इसके पश्चात् भारत ने १,५०,००,००० पौंड और दिया। (जिसका एक भाग रेलवे कंपनियों के हिस्सेदारों को मिला, का करती है। सकर की आय का होता तो बाम पहुँच सकत