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भेद-नीति

यही बात लेफ़टिनेन्ट कर्नेल जांन कोक ने, जो मुरादाबाद में सेनाध्यक्ष थे, १८५७ के सिपाही-विद्रोह के समय में, बड़े स्पष्ट शब्दों में लिखी थी[१]:––

"हमारा उद्योग यह होना चाहिए कि (हमारे सौभाग्य से) इस देश में भिन्न भिन्न धर्मों और जातियों में जो भेद उपस्थित है उसे हम पूर्णरूप से बनाये रहें। उनको मिलाने का प्रयत्न न करें। 'फूट उत्पन्न करके राज्य करना' ही भारत सरकार का सिद्धान्त होना चाहिए।"

बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिन्स्टन ने १४ नई १८५९ ईसवी के एक विवरण-पत्र में लिखा था[२]––"प्राचीन रोमन राज्य का सिद्धान्त था––'शासित प्रजा में फूट उत्पन्न करके राज्य करो'। यही हमारा सिद्धान्त होना चाहिए।"

एक प्रसिद्ध अँगरेज़ सिविलियन और भारतीय समस्याओं के लेखक सर जॉन स्ट्रेची ने कहा था––'जिन बातों से भारतवर्ष में हमारी राजनैतिक स्थिति दृढ़ रह सकती है उनमें एक भारतीय जनता में दो परस्पर विरोधी मतों का होना भी है[३]

इस निर्दोष प्रमाण से मिस मेयो के इस कथन की तुलना कीजिए कि 'ब्रिटिश ताज के शासन की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध-काल में सिविल सर्विस के अँगरेज़ अफसरों-द्वारा शासन तथा न्याय दोनों विभागों का कार्य संचालन होता रहा। अपने कर्तव्य का पालन करते समय ये अफसर हिन्दू-मुसलमानों में कोई भेद नहीं मानते थे। सर्वहित को एकही दृष्टि से देखते थे।'

उस अर्धशताब्दी में भी आज ही की भाँति भारतवर्ष में फूट उत्पन्न करके शासन करने की नीति मुख्य थी।

अन्तर केवल इतना ही है कि पहले मुसलमानों का 'दमन' करने की नीति थी अब उनकी पीठ ठोंकी जाती है और वे कृपा-दान से मिलाये।


  1. बसु द्वारा उद्धत, उसी पुस्तक से।
  2. उसी पुस्तक से,
  3. बसुकृत, उसी पुस्तक से।