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भेद-नीति

लार्ड मिन्टो को मुसलमानों की माँग पूरी करनी पड़ी थी उन्हें प्रमुख मुसलमान नेता मिस्टर मुहम्मद अली के शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। मिस्टर मुहम्मद अली ने कोकोनाडा कांग्रेस (१९२३) में अपने व्याख्यान में कहा था:––

"कुछ मास पूर्व मुसलमानों का एक डेपूटेशन वायसराय लार्ड मिन्टो की सेवा में शिमला पहुँचा। यह डेपूटेशन मिन्टो-मारले सुधारों के संबन्ध में, जो उस समय होनेवाले थे, वायसराय और उनकी सरकार के सामने मुसलसानों की कुछ माँगें उपस्थित करने गया था। युद्ध के समय में अँगरेज़ पत्रकारों की नीति के अनुसार 'अब यह कहने में कोई हानि नहीं है कि इस डेपुटेशन का काम केवल 'आज्ञा-पालन था। यह स्पष्ट होगया था कि सरकार पढ़े-लिखे भारतीयों की माँगों को सहन नहीं कर सकती थी। और सदा की भाँति वह उनके सामने एक आध मुट्ठी कुछ फेक देना चाहती थी ताकि वे कुछ वर्षों के लिए चुप हो जाय! अब तक मुसलमानों का व्यवहार आययलैंड के उस कैदी के समान था जिसने जज के यह पूछने पर कि क्या तुम्हारी ओर से पैरवी करने के लिए कोई वकील है, स्पष्ट शब्दों में यह उत्तर दिया था कि निस्संदेह मैंने वकील नहीं किया पर 'पञ्चों में मेरे मित्र बैठे हैं।' अव 'पञ्चों में जो मुसलमानों के मित्र थे' उन्होंने उन्हें गुप्त रूप से यह हिदायत कर दी कि तुम भी औरों की भांति प्रमाण-पत्र-प्राप्त वकील कर लो।

मिन्टो-मारले सुधारों के संयुक्त रचयिता लार्ड मारले स्पष्ट रूप से यही दृष्टिकोण रखते थे। मिन्टो को एक चिट्ठी[१] में उन्होंने लिखा था––मैं पुनर्वार इन मुसलमानी झगड़ों में आपका साथ नहीं दूँगा––मैं विनय के साथ आपको यह स्मरण दिला देना चाहता हूँ कि मुसलमानों की विशेष माँगों के सम्बन्ध में आपने जो पहले व्याख्यान दिया था पहले पहल उसी ने इस मुस्लिम-खरगोश को दौड़ाया है।'

ये विशेष माँगें अंशतः ब्रिटिश शासन के प्रति मुसलमानों की राजभक्ति पर निर्भर थीं।

भेद उत्पन्न करनेवाली साम्प्रदायिक निर्वाचन की यह नीति ब्रिटिश

शासकों को बड़े काम की प्रतीत हुई। हाल के दृङ्गों से इसका कम संबन्ध नहीं है––जैसा कि मिस मेयो के वर्णनों से भी स्पष्ट है


  1. मारले की स्मृतियाँ, भाग २ पृष्ठ ३२५।