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दुखी भारत

अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब मांटेग्यू और चेम्सफोर्ड––और उसके पश्चात् पार्लियामेंट की कमेटियाँ १९१९ के सुधारों को गढ़ने बैठीं तब भारत का जिन बातों से बोध होता है वे सब उनके बिल से अदृश्य हो गई और उनके स्थान पर हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, मराठा, ब्राह्मण, अब्राह्मण, भारतीय ईसाई, ऐंग्लो इंडियन और अँगरेज़ आदि भेद उत्पन्न करनेवाले शब्द आ गये।[१]

ब्रिटिश-वादी लोग इस बात को पूर्ण रूप से जानते हैं कि साम्प्रदायिक निर्वाचन (उनके लिए) हितकर है। यही कारण है कि टोरी दल और अन्य भारत के विरोधी दलों के टाइम्स आदि लन्दन के समाचार-पत्र साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का इतने ज़ोर-शोर के साथ समर्थन कर रहे हैं।

उत्तरदायी अँगरेज़ राजनीतिज्ञों ने भी भारतवर्ष में नौकरशाही की कारगुजारियों पर सन्देह प्रकट किया है। ब्रिटेन के भूतपूर्व और भावी प्रधान मन्त्री श्रीयुत रामसे मैकडानेल इस चारों ओर फैले हुए सन्देह के सम्बन्ध में कहते हैं

"गवर्नमेंट की ओर से अनुचित उपाय काम में लाये जा रहे हैं और लाये गये हैं। किन्हीं किन्हीं अँगरेज़ अफसरों ने मुसलमान नेताओं को उत्साहित किया है और कर रहे हैं। इन अफसरों ने शिमला और लन्दन में तार खड़-खड़ाये हैं और खड़खड़ा रहे हैं। ये पूर्व निश्चित द्वेष-भाव से मुसलमानों के साथ विशेष पक्षपात करके मुसलमान और हिन्दुओं में वैमनस्य का बीज बोते हैं[२]।"

पञ्जाब-कार्यकारिणी सभा के भूतपूर्व सदस्य सर जान मेनर्ड ने हाल ही में लन्दन के 'फारेन अफेयर्स में एक लेख प्रकाशित कराया है। उसमें आप लिखते हैं:––

"इस बात के सत्य होने में सन्देह नहीं कि यदि भेदोत्पादक नीति से काम न लिया जाता तो भारत में ब्रिटिश अधिपत्य न तो स्थापित हो सकता


  1. 'पीपुल' (लाहौर) की १ मई १९२७ की संख्या में प्रकाशित जोहिया सी॰ वेजउड––मेम्बर, पार्लियामेंट––का एक लेख।
  2. "भारतवर्ष में जाग्रति," पृष्ठ २८३।