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दुखी भारत

है, जो भारत के उस भाग में समस्त अफ़ग़ान जनता के हृदय में भय उत्पन्न कर देनेवाले हरिसिंह के नाम पर बसाया गया था। हमें पूरा विश्वास है कि यह समस्त वक्तव्य स्वयं मिस मेयो के मस्तिष्क की उपज है; या नहीं तो किसी अँगरेज़ अफसर ने, उसकी आँख में धूल झोंकने के लिए अथवा यह सिद्ध करने के लिए कि भारतवर्ष में हिन्दुओं को छोड़ कर शेष सब ब्रिटिश शासन को पसन्द करते हैं, उसकी पुस्तक में जुड़वा दिया होगा।

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सर इब्राहिम रहमतुल्ला बम्बई के एक मुसलमान नेता हैं। वे एक बड़े व्यापारी हैं और बम्बई की व्यवस्थापिका सभा के कई वर्ष सदस्य रह चुके हैं। पहले वे सरकार द्वारा नामज़द किये गये थे, परन्तु जब सभापति के निर्वाचन का क़ानून व्यवहार में आने लगा तब भी वे सर्वसम्मति उस पद के लिए निर्वाचित हुए थे। अखिल भारतवर्षीय औद्योगिक और व्यापारिक महासभा के गत अधिवेशन में, जो दिसम्बर १९२७ के अन्तिम सप्ताह में मद्रास हुआ था, सभापति की हैसियत से उन्होंने ब्रिटेन के 'भारतवासियों के संरक्षक होने के' दावे पर विचार किया था और कहा था––

"जब ऐसा दावा है तब यह विचार करना उचित होगा कि 'संरक्षकों' ने गत डेढ़ सौ शताब्दियों में अपने पूर्णाधिकार के समय में अपने कर्तव्य का पालन कैसे किया?......यदि ब्रिटेन एक ऐसा संरक्षक निकला जिसका कोई अपना स्वार्थ न हो और जो भारतवासियों की भलाई का हृदय से इच्छुक हो तो यह उसके लिए बड़ी प्रशंसा की बात होगी। यदि उसके दीर्घ संरक्षण में भारत को सुख और संतोष प्राप्त हुआ हो तो निःसन्देह उसका इस देश के साथ सम्बन्ध स्थापित होना ईश्वरीय कृपा का फल समझा जायगा। इसलिए अब प्रश्न यह है कि क्या ब्रिटेन स्वार्थ-रहित संरक्षक सिद्ध हुआ है और क्या उसके दीर्घ सम्बन्ध से इस देश के निवासियों को आर्थिक दृष्टि से सुख और सन्तोष प्राप्त हुआ है। जिसने देश के सार्वजनिक जीवन में कोई भी दिलचस्पी ली है, उसे इस प्रश्न का एक ही उत्तर मिलेगा। और वह उत्तर यह है कि ब्रिटेन का आदि से अन्त तक प्रथम ध्येय यह रहा है कि भारतीय बाज़ार उसके हाथ में रहे ताकि उसके माल की बिक्री हो। उसने अपनी राजनैतिक शक्ति का केवल इसी ध्येय की उन्नति के लिए प्रयोग किया है। हमें बतलाया गया है कि पुरुषार्थी व्यापारियों का वह छोटा