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दुखी भारत

रिक्त सरकार द्वारा जितने भी जाँच कमीशन नियुक्त किये गये सबके सभापति योरपियन थे और बहुमत भी उन्हीं का था। जो नीति भारत की आर्थिक समस्याओं के लिए उपयुक्त हो सकती है, वह भारतवासियों-द्वारा नहीं बल्कि अँगरेज़ों द्वारा निर्धारित की जाती है। और यह स्वाभाविक ही है कि जो शिक्षा उन्हें मिली है उसके अनुसार वे प्रत्येक समस्या पर इसी दृष्टिकोण से विचार करेंगे कि इसका ब्रिटेन पर क्या प्रभाव पड़ेगा।"

आर्थिक स्थिति की जाँच करने के लिए जिस कमीशन में एक भारतीय सभापति नियुक्त हुआ था वह स्वयं सर इब्राहिम का कमीशन था। भारतवर्ष की कर सहन करने की शक्ति पर विचार करते हुए सर इब्राहिम लिखते हैं:––

"यह तर्क उपस्थित किया गया है कि जब से ब्रिटिश लोग आये हैं तब से भारतवर्ष की विशेष उन्नति हुई है और इस समय इसके पास जितना धन है उतना पहले नहीं था। यह मान लिया जाय कि, जहाँ तक रुपये का सम्बन्ध है, भारत की दशा पूर्व की अपेक्षा अच्छी है तो भी यह स्मरण रखना चाहिए कि जीवन-निर्वाह का व्यय यथेष्ट रूप से बढ़ गया है, रुपये की खरीदने की शक्ति घट गई है, बचत के रुपये एकत्रित करके किसी ने विशेष धन संग्रह नहीं किया, और जनता में दरिद्रता बढ़ गई है। वस्त्र जो कि जीवन की आवश्यकताओं में से एक है युद्ध के पूर्व औसत दर्जे पर प्रतिमनुष्य १८ गज़ के हिसाब से इस्तेमाल किया जाता था। अब यह घट कर केवल १० गज़ प्रति मनुष्य हो गया है। यदि परिस्थिति भिन्न होती तो वर्तमान कर के अनुसार लाभ में कमी नहीं हो सकती थी। फिर इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि सरकारी व्यय को कम करने के लिए लगातार पुकार मच रही है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इस ओर प्रयत्न किया गया है परन्तु विशेष सफलता नहीं हुई। कमी करने के प्रश्न पर विचार करते समय हमारे सामने बार बार यही प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शासन का यंत्र सब प्रकार से पूर्ण होना चाहिए। और इस पूर्णता की जाँच करना भी अधिकारियों के ही हाथ में है। इस पूर्णता की पुकार के फल-स्वरूप बड़ी हानि हुई है। यह विदित होना चाहिए कि कोई देश उतनी ही पूर्णता प्राप्त कर सकता है जितनी उसके पास व्यय करने की शक्ति हो। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत की आर्थिक शक्ति ऐसी है कि वह अपने ऊपर लादे गये पूर्णता के इस आदर्श को सँभाल सकता है? कोई किसी देश पर किसी समय तक के लिए पूर्णता का ऐसा आदर्श नहीं रख सकता जो उस