देश की साधन-शक्ति से बाहर हो। एक सभ्य सरकार का मुख्य कत्तव्य यह है कि वह लोगों की कर सहन करने और उन्नति के लिए धन देने की शक्ति को बढ़ाने के लिए उस देश के आर्थिक साधनों को दृढ़ करे।"
सर इब्राहिम ने अपने स्पष्ट और बहुत बड़े भाषण को अँगरेज़ों से निम्नलिखित प्रार्थना करते हुए समाप्त किया था:-
"अँगरेज़ लोग भारतवर्ष में लोकोपयोगी कार्य्य करने या अपने स्वास्थ्य के लाभ के लिए नहीं पाते। मैं उनसे यह प्रार्थना करूँगा कि वे 'भारतवर्ष को 'एक पवित्र धरोहर' कहने का बहाना छोड़ दें और स्पष्ट रूप से यह स्वीकार कर लें कि वे इस देश में अपने व्यापारिक स्वाथों को सिद्ध करने के लिए हैं। मैं लार्ड अरविन से प्रार्थना करूँगा कि वे भारत की याधिक समस्या पर उसी उत्साह के साथ विचार करें जिससे उन्होंने लाई लायड के साथ ब्रिटेन की समस्या पर किया था। और जिन बातों पर वहाँ ज़ोर दिया था उन्हीं को लेकर भारतवर्ष के लिए एक नीति निर्धारित कर दें। मैं उनसे यह भी प्रार्थना करूँगा कि वे व्यापारिक भारतवर्ष के चुने चुने विद्वानों को, भारत को वश में रखने की ब्रिटेन की वास्तविक नीति को प्रकट करने और सम्मिलित शक्ति से भारत की उन्नति का उपाय सोचने के लिए, आमन्त्रित करें।"
इससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि ब्रिटिश शासन के सम्बन्ध में हिन्दुओं और सर इब्राहिम रहमतुल्ला जैसे उदार, शिक्षित और नर्मदल के मुसलमान नेता के विचारों में विशेष अन्तर नहीं है।
अभी हाल में १९१९ के सुधारों की सफलता आदि के सम्बन्ध में जांच करने के लिए सरकार द्वारा जो सायमन कमीशन नियुक्त हुआ है, उसके प्रति मुसलमानों का जो भाव है उससे भी ब्रिटिश सरकार के प्रति उनके भावों का बड़ा सुन्दर प्रदर्शन हो जाता है। प्रायः समस्त अखिल भारतीय मुसलमान नेता, जिनकी कि देश के सार्वजनिक जीवन में गणना है, सायमन कमीशन का बहिष्कार करने में हिन्दू नेताओं के साथ हैं। अखिल भारतीय सुसलिम लीग ने, जिसका अधिवेशन ३० दिसम्बर १९२७ ईसवी को कलकत्ते में हुआ था, इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भी पास किया था। विपक्ष में केवल दो