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तीसवाँ अध्याय

अँगरेज़ी राज्य पर अँगरेजों की सम्मतियाँ

मिस मेयो की पुस्तक राजनैतिक आन्दोलन से आरम्भ हुई है और इसी में इसका अन्त भी हुआ है। प्रत्येक अध्याय में भारतवर्ष में ग्रेटब्रिटेन की कारगुज़ारियों की ख़ूबी और अँगरेज़ अफ़सरों की लोक-प्रियता का कुछ न कुछ वर्णन किया गया है। प्रत्येक अध्याय में भारतवासियों के जीवन और आकांक्षाओं की दिल्लगी उड़ाई गई है और उन पर घृणा की बौछारें की गई हैं। पुस्तक को आदि से अन्त तक पढ़ जाइए। एक जाति की हैसियत से भारतवासियों की प्रशंसा में आपको एक शब्द नहीं मिलेगा। और न कोई शब्द ऐसा मिलेगा जिसमें ब्रिटिश की निन्दा की गई हो। इस दृष्टि से पुस्तक एक ही है। भारतवर्ष के सम्बन्ध में अँगरेज़ों ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। परन्तु उनमें ऐसी एक भी नहीं है जो पूर्णरूप से भारतवासियों के विरुद्ध हो या जो पूर्णरूप से अँगरेज़ों का पक्ष समर्थन करनेवाली हो। उनकी पुस्तकें प्रायः भारतवर्ष में ब्रिटिश-नीति को उचित ठहराती हैं और कहीं कहीं उसकी त्रुटियों और दोषों को भी स्वीकार करती हैं। परन्तु मिस मेयो की राय में भारतवर्ष में ब्रिटिश-शासन सब प्रकार से पूर्ण है फिर भी यह देश एक ऐसा नरक बना हुआ है जिससे समस्त संसार को ख़तरा है। यह दोष भी पूरा पूरा भारतवासियों का ही है। अँगरेज़ी राज्य का इसमें ज़रा भी दोष नहीं। आवेशपूर्ण और लम्बी-चौड़ी बातें बनाने में वह सबसे बाज़ी मार ले गई है। ब्रिटिश-राज्य के अत्यन्त निर्लज्ज समर्थकों को भी उसने पछाड़ दिया है। शासन-व्यवस्था श्रेष्ठ है, पूर्ण है, सच्ची है और मानवीय है परन्तु शासित लोग पूर्णरूप से नीच, व्यभिचारी, मैले, गन्दे, अयोग्य, रोगी, पतित, मूर्ख और दरिद्री हैं-यही भारत का चित्र है जो मिस मेयो ने उपस्थित किया है। उसके मस्तिष्क में एक क्षण के लिए भी यह बात नहीं बैठती कि ये दोनों बातें पूर्णरूप से एक दूसरी के प्रतिकूल हैं।

विदेशी शासन-मात्र, चाहे वह प्रजातान्त्रिक हो चाहे नौकरशाही, अनीति-मूलक, अस्वाभाविक और पतन-मय होता है। स्वभाव से ही बह