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अँगरेज़ी राज्य पर अंगरेज़ों की सम्मतियां


अन्यथा नहीं हो सकता। अँगरेज़ लोग बड़े सदाचारी हो सकते हैं पर आखिरकार वे मनुष्य ही तो हैं। और अच्छे से अच्छे मनुष्य भी दूसरों की भलाई के लिए उन पर शासन नहीं कर सकते। यही कारण है कि लोग एकाधिपत्य शासन की निन्दा करते हैं। परन्तु यदि एकाधिपत्य शासन, अपने स्वरूप में राष्ट्रीय होते हुए भी, बुरा है और सदैव प्रजा को सुख और उन्नति की ओर नहीं ले जाता तो विदेशी प्रजातन्त्र या एकाधिपत्य शासन ('लास्ट डोमीनियम के' लेखक ने भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन-पद्धति को एकोऽहं द्वितीयो नास्ति ही कहा है) कदाचित् ही अच्छा हो सकता है! बड़े-बड़े अंगरेजों ने स्वीकार किया है कि भारतवर्ष का अँगरेज़ी राज्य इस साधारण नियम से बाहर की बात नहीं हो सकता। प्रोफ़ेसर जेसीले ने 'इँगलेंड का विस्तार' नामक पुस्तक में भारतवर्ष के लिए अंगरेजी शासन के लाभदायक होने में गम्भीर सन्देह प्रकट किया है। वे बड़े महत्त्व-पूर्ण शब्दों में कहते हैं-'दीर्घकालीन पराधीनता राष्ट्रीय अधःपतन का एक महान् कारण है।' १९१८ ईसवी की मांटेग्यू-लेम्स-फोर्ड रिपोर्ट में उसके संयुक्त रचयिताओं ने तत्कालीन भारतीय शासन को 'दयालु-स्वेच्छाचारिता' कहा था। परन्तु ब्रिटिश मज़दूरदल के साम्राज्यवादी नेता मिस्टर रामसे मैकडानेल के कथनानुसार किसी देश पर 'दयालु-स्वेच्छाचारिता' से शासन करने के समस्त उद्योगों में शासित लोग पिस जाते हैं। 'वे ऐसी प्रजा बन जाते हैं जो आज्ञा मानती है; ऐसे नागरिक नहीं बनते जो कुछ कार्य करें। उनका साहित्य, उनकी कला, उनके प्राध्यामिक विचार सब नष्ट हा जाते हैं-"*[१] परन्तु इस सम्बन्ध में हम अपने विचारों के स्थान पर उन अँगरेज़ लेखकों और शासकों की सम्मतियाँ उपस्थित करना अधिक उचित समझते हैं जो भारतवर्ष को और इस पर शासन करनेवाली सरकार को प्रत्येक बात में धृष्टा मिस मेयो की अपेक्षा कहीं अधिक जानते थे†[२]

  1. * भातरवर्ष में जाग्रति, पृ॰ २१३।
  2. † इस अध्याय की सामग्री का कुछ भाग दिसम्बर १९२७ के माडर्न रिव्यू (कलकत्ता) में प्रकाशित रेवरड, जे॰ टी॰ सन्डरलैंड के 'क्या अँगरेज़ भारत में राज्य करने के लायक़ है? नामक लेख से लिया गया है। इसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।