वाली संस्था के सदस्य के रूप में पाता है। आज्ञा देने के लिए उसके पास आवश्यकता से अधिक नौकर हैं और काले चमड़ेवाले ऐसे मातहत हैं जिनके साथ कड़ाई से व्यवहार करना ही उचित और ठीक है। उसके चारों तरफ ३२ करोड़ भारतीय बसे हुए हैं। वह उनसे-कुली से लेकर महाराजा तक से, अछूत से लेकर कुलीन ब्राह्मण तक से, अपढ़ किसान से लेकर योरप के विश्वविद्यालयों की दर्जों डिग्रियाँ रखनेवाले तक से-अपने आपको अतुलनीय उच्च समझता है। वह स्वयं चाहे क्षुद्र परिवार का हो, चाहे मूर्ख हो, चाहे अल्पशिक्षित हो; इसकी उसे कोई परवाह नहीं। उसका चमड़ा सफ़ेद है। भारतवर्ष में बड़प्पन चमड़े का ही प्रश्न है।"
लन्दन 'डेली हेरल्ड' के भूतपूर्व संपादक मिस्टर जार्ज लैंसवरी ने ११ दिसम्बर १९२० ईसवी को एज़ेक्स हाल में व्याख्यान देते हुए कहा था:-
"भारतवर्ष में ३० करोड़ से ज़्यादा मनुष्य हैं। ब्रिटिश द्वीपसमूह में हम अँगरेज़ लोग करोड़ हैं। हम लोग उनके हित के लिए उनकी अपेक्षा अधिक जानने का दावा करते हैं। क्या इससे भी अधिक निर्लज्जता कभी की गई थी? क्योंकि हमारा चमड़ा सफ़ेद है इसलिए हम उनकी अपेक्षा जिनका चमड़ा सूर्य ने काला कर दिया है, अधिक मस्तिष्क रखने का दावा करते हैं। जब मैं भारतवासियों को देखता हूँ तब मुझे अपने आप पर शर्म मालूम होती है। मैं भारतवर्ष के सम्बन्ध में उनकी अपेक्षा अधिक कैसे जान सकता हूँ।"
जुलाई १९१० ईसवी में हाउस आफ़ कामन्स में व्याख्यान देते हुए भारत-मंत्री मिस्टर मांटेग्यू ने कहा था:-
"भारत की शासन-व्यवस्था इतनी जड़-बुद्धि, इतनी कठोर, इतनी हठी और इतनी असामयिक है कि वह आधुनिक बातों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। भारत-सरकार का समर्थन नहीं किया जा सकता।"
सब बातों पर विचार करते हुए भारतवासी इस शासन को, जिसके अधीन रहने के लिए वे वर्तमान समय में विवश किये जाते हैं, १९१७ ईसवी में की गई मिस्टर मांटेग्यू की कड़ी आलोचना से ज़रा भी अच्छा नहीं समझते।