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दुखी भारत

रखते हुए भी, और इस बात की कड़ी सावधानी होते हुए भी कि उन्हें सब बातें अँगरेज़ों के ही दृष्टि-कोण से दिखलाई जाँय, वे शीघ्र ही भ्रमजाल से बाहर निकल गये। उन्होंने देखा कि भारतवर्ष में जो अँगरेज़ी राज्य है वह ईश्वरीय कृपा का फल नहीं है। वह तो भारत का नाश करने में लगा है। अँगरेज़ों की साधारणतया साम्राज्य-नीति सम्बन्ध में वे लिखते हैं[१]––

"ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक दोष यह भी है कि यह अच्छे भावों से प्रेरित होकर मी स्वतन्त्र जातियों के मामले में पड़ता है तो अन्त में बिना बुराई पैदा किये नहीं रहता। इसके अनेक स्वार्थ सदैव काम करते रहते हैं और कोई कार्य कितने ही अच्छे उद्देश्यों से क्यों न प्रारम्भ हो, अन्त उनका बुरा ही होता है।"

भारतवर्ष के सम्बन्ध में वे लिखते हैं:––

"भारतवर्ष से मुझे सन्तोष नहीं है। उसकी शासन-पद्धति उतनी ही बुरी प्रतीत होती है जितनी शेष एशिया की! अन्तर केवल इतना ही है कि इस पद्धति का उद्देश्य अच्छा है या कुछ नहीं है। विदेशी अफ़सरों द्वारा उतना ही भारी कर लगाया जाता है और धन का उतना ही अपव्यय किया जाता है जितना कि टर्की में देखने में आता है। बात एक ही है। भूखे हिन्दुओं पर कलकत्ते में गिरजाघर बनवाने के लिए कर लगाने और बलगोरियनों पर बास- फ़ोरस पर महल बनाने के लिए कर लगाने में मुझे कोई विशेष अन्तर नहीं दिखलाई पड़ता।......भारतवर्ष के निवासियों को वे "नेटिव" कहते हैं। यह नेटिव भयभीत, दुखी और अत्यन्त दुबले-पतले गुलामों की जाति है। मैं स्वयं एक अपरिवर्तनवादी हूँ और लन्दन के कार्ल्टन क्लब का सदस्य हूँ, पर मैं यह स्वीकार करता हूँ कि जिस परवशता में भारतवासियों को रक्खा गया है उसे देख कर मुझे बहुत दुःख पहुँचा है और ब्रिटिश संस्थाओं तथा ब्रिटिश शासन की खूबियों में, मेरे विश्वास को खूब कस कर घूँसा लगा है। भारतीय अर्थनीति के रहस्यों का मैंने, श्रेष्ठ अध्यापकों, सरकार के मन्त्रियों, कमिश्नरों और अन्य अफ़सरों की देख-रेख में, अध्ययन किया है और मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि यदि इसी वेग से कार्य होता रहा तो कभी न कभी भारतनिवासी मनुष्य-भक्षी प्राणियों में परिवर्तित हो जायेंगे क्योंकि उन्हें एक दूसरे

के अतिरिक्त और कुछ खाने को शेष ही न रह जायगा।"


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