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सुधारों की कथा

बाणियाँ अब गूँगी पड़ गई हैं। प्राचीन पहरेदारों के बोल अब नहीं सुनाई पड़ते। प्राचीन आदर्श, विधान और गहरे जमे विचार अब बिना तर्क या समालोचना या यादगार के हटाये जा रहे हैं........."

मांटेग्यू की भाँति बटलर ने भी शासन के प्राचीन मंत्र को अत्यन्त जड़ कठोर और असामयिक बतलाया था। उन्हीं के शब्दों में पढ़िए:––

"हमारे शासन के यन्त्र का सम्बन्ध दूसरे युग से है। यह ऊपर से भारी है। यह जान बूझ कर मन्द और दुःखदायक गति से चलता है। विलम्ब में ही इसे प्रसन्नता है। इसकी उत्पत्ति उस समय हुई जब कोई लक्ष्य नहीं था, जब कोई परिवर्तन नहीं चाहता था और जब केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों की प्रबल इच्छा इतनी ही थी कि धन बचाया जाय। अब राष्ट्रीय नवयुग की उमङ्ग पैदा हुई है; आर्थिक वसन्त ऋतु का समय है; जल्दी जल्दी कार्य करने, जल्दी उत्तर देने और नये नये साहसपूर्ण प्रयोगों की पुकार मची है।"

'लाल फीते' के सम्बन्ध में बोलते हुए उन्होंने एक पादरी की बातों का स्मरण किया। जिसने उनसे कहा था कि 'रोम ने शताब्दियों के अनुभव के पश्चात् विलम्ब को विज्ञान बना दिया था। वह स्थापित करने और भविष्य पर डालने की ही बातें सोचा करता था। पर भारत सरकार ने रोम की भी नाक काट ली है।'

इस व्याख्यान की मैंने नीचे लिखे अनुसार समालोचना[१]की थी। इस उस समय के प्रचलित विचारों का नमूना ही समझिए––

"भारतवासियों के लिए यह वक्तव्य ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के भी वाक्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह नौकरशाही के एक एँग्लो इंडियन सदस्य के मुँह से निकला है। यदि यह वक्तव्य केवल जुबानी नहीं है बल्कि भारतवर्ष में नौकरशाही के हृदय के सच्चे परिवर्तन का द्योतक है तो हम लोगों के लिए यह समझना और भी कठिन हो जाता है कि भारत-मंत्री और वासयराय की नवीन योजना में शिक्षित भारतीयों के प्रति इतना अविश्वास क्यों प्रकट किया गया है। कुछ भी हो, हमें उस स्पष्टवादिता और न्याय के

भाव की प्रशंसा करनी चाहिए जो उस रिपोर्ट का विशेष गुण है। जिस


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १३-१४।