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दुखी भारत

परिणाम पर वे पहुँचे हैं उससे हमारा कितना ही मतभेद क्यों न हो, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि समस्याओं की व्याख्या और विधानात्मक बातें अत्यन्त अच्छे ढङ्ग से उपस्थित की गई हैं और परिस्थिति को जैसा उन्होंने समझा है उसके अनुसार आवश्यकताओं की पूर्ति के उन्होंने जो उपाय सोचे हैं वे पूर्ण रूप से हार्दिक और सच्चे हैं। इसलिए यह और भी आवश्यक है कि सब श्रेणियों के और सब विचारों के भारतीय राष्ट्रवादी छिद्रान्वेषण के भाव से नहीं, रचनात्मक भाव से और सहयोग के विचार से इस समस्या पर गम्भीरता के साथ विचार करें।"

ये सब बातें १९१९ ईसवी के आरम्भिक भाग में रौलट बिल का क़ानून बनने और महात्मा गान्धी का सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ होने से पहले हुई। उस समय भी नौकरशाही का एक ऐसा दल था जो मांटेग्यू को गालियाँ दे रहा था और उनके ऊपर दाँत पीस रहा था। तथा उन्होंने जो कुछ थोड़ा बहुत किया था उसको नष्ट करने का पूरा निश्चय किये हुए था। इस दल के प्रतिनिधि सर माइकल ओडावर और जनरल डायर थे। पहले महाशय ने एक विद्रोह की गढ़न्त की और दूसरा भारतवासियों को उस स्थान पर पहुँचाने चला, जहाँ उसकी समझ में उन्हें रहना चाहिए था। अमृतसर के नर-संहार और मार्शल ला के अत्याचार इन्हीं भावनाओं के परिणाम थे।

परन्तु उस समय भी अमृतसर की काँग्रेस (दिसम्बर १९१९) ने यह स्वीकार करते भी कि सुधार अपूर्ण और असन्तोष तथा निराशाजनक है निश्चय किया था कि वे जिस योग्य हो उसी के अनुसार उन पर कार्य करना चाहिए। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने इसको समझने में भूल की थी। 'शीघ्र और उदार भावों की प्रेरणा' के एक क्षण में ही उन्होंने यह विश्वास कर लिया था कि अगस्त १९१७ की घोषणा निष्कपट और यथार्थ है और ब्रिटिश लोग अपने वचन पर दृढ़ रहेंगे। ब्रिटेन के उपनिवेशों और आयर्लेंड के प्रति किये गये व्यवहारों को उन्होंने जान बूझ कर भुला देना ही पसन्द किया। और अपने विचारों में असंशयात्मक भाव से ग्रेटब्रिटेन के प्रति आशा और विश्वास को स्थान दिया। उन्हें यह भूल गया कि साम्राज्यवाद के कोष में कृतज्ञता जैसा कोई शब्द नहीं है और उन्हें प्रत्येक पद पर पराजित करने के लिए स्वार्थ-भावनाएँ अब भी वैसी ही प्रबल हैं। अब ब्रिटेन का काम