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सुधारों की कथा

निकल गया था। नवीन समय के लिए नवीन विधान होने चाहिए। युद्ध विजय प्राप्त हो चुकी थी, साम्राज्य सुरक्षित हो चुका था, इसलिए ब्रिटेन ने फिर अपनी मनमानी आरम्भ कर दी। यहाँ तक कि मांटेग्यू को जो थोड़े से सुधार उपस्थित करने की आज्ञा दी गई थी, उनको भी नष्ट करने की तैयारी होने लगी। वे लूट-खसोट की नीति को ही जारी रखना चाहते थे। जैसा कि मांटेग्यू ने कहा था, भारत सरकार कुछ कम या अधिक एक व्यक्ति- हीन यंत्र के समान निर्जीव, निर्दय और क्रूर थी। यह अपनी उसी प्राचीन नीति को फिर से व्यवहार में लाने का अवसर ढूँढ़ रही थी जिसका सर जार्ज विज़नी ने अपनी 'भारतवर्ष में प्रयोग'[१] नामक पुस्तक में समर्थन किया उस पुस्तक के अन्तिम शब्द ऐंग्लो-इंडियन के वास्तविक विचारों को प्रकट करते हैं और मिस मियों की पुस्तक के उस भाग का ख़ासा मुँहतोड़ जवाब देते हैं जिसमें उसने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि ब्रिटेन अपने भारतवर्ष में शासन से कोई आर्थिक लाभ नहीं उठाता।

सर जार्ज की समझ में 'विधानात्मक सुधारों की सारी चर्चाओं में––बढ़ाने या घटाने की समस्त सम्भतियों में––एक प्रकार की निरर्थकता का भाव होता है।' क्योंकि उन्हीं के शब्दों में 'मुख्य प्रश्न' यह है कि 'शासन करेगा कौन?' प्रमाण देने के लिए सर जार्ज ब्रिटेन की नैपोलियन के समय से लेकर सदा की वैदेशिक नीति को नीचे लिखे अनुसार उपस्थित करते हैं:––

"भारतवर्ष में अँगरेज़ों की जिस शक्ति ने इतनी कठिनाइयों को पार किया था, जिसे पूर्ण रूप से स्थापित होने से पहले नेपोलियन की आकांक्षाओं को परास्त करना पड़ा था, जो हाल की स्मृति में प्रत्यक्षतः रूस के अनिवार्य आक्रमणों को रोकने की खुशी खुशी तैयारी कर रही थी, यदि उसे राष्ट्रीय सनक की एक क्षणिक मौज में त्याग दिया जाय तो एक विचित्र परिस्थिति उत्पन्न हो जायगी।"

अन्तिम चेतावनी के रूप में सर जार्ज ब्रिटिश जनता से प्रार्थना करते हैं कि 'आप लोग प्राकृतिक अधिकार, आत्म-निश्चय और ऐसे अन्य भ्रमोत्पादक


  1. जान मर्रे लन्दन द्वारा प्रकाशित।