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दुखी भारत

राजनैतिक धर्माचरण के शब्दों को सदा के लिए खारिज कर दीजिए और प्रत्येक वस्तु को इस दृष्टिकोण से देखिए कि उससे आपको क्या लाभ हो सकता है।' इस वक्तव्य से ब्रिटिश शासन उतना लोकोपयोगी सिद्ध नहीं होता जितना मिस मेयो उसे बतलाती है। लोकोपयोगी उद्देश्यों के प्रश्न पर सर जार्ज ने इतना बढ़कर और इतने स्पष्ट रूप से विचार किया है कि नीचे उनकी पुस्तक से एक लम्बा उद्धरण देना अनुचित न होगाः––

"भारतवर्ष दो स्वामियों के अधीन नहीं रह सकता। यदि ब्रिटेन पृथक् खड़ा होता है तो भारतवासी तुरन्त लड़ मरेंगे। भारत निर्वाचन नहीं चाहता; पर इँगलैंड के लोग उस पर बलपूर्वक यह बला लादने जा रहे हैं इसलिए उन्हें अपने इस सरल प्रतीत होनेवाले कार्य के परिणामों को खूब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। यह देखते हुए कि रूस से भारत की रक्षा करना, १९ वीं शताब्दी के मध्य से उसके अन्त तक, हमारी मुख्य वैदेशिक नीति रही है––वर्तमान समय में भी यह देखते हुए कि ब्रिटेन की कर सहन करने की पीड़ित शक्तियों पर एशिया में अपना राज्य कायम रखने के लिए कितना ख़र्चीला बोझा लादा जा रहा है, इस बात पर कठिनता से विश्वास किया जा सकता है कि वे (इँगलैंडनिवासी) इस ओर से उदासीन हैं। मेसोपोटामिया में हमारे युद्ध करने का इसके अतिरिक्त और क्या उद्देश्य हो सकता है कि शत्रु के प्रभावों को भारतवर्ष से दूर पर रक्खा जाय? इससे यह प्रतीत होगा कि हम लोगों का भी बहुत कुछ वहीं विश्वास है जो हमारे पूर्वजों का था। अर्थात् यदि हम संसार की ईष्या के विरुद्ध इस महान् पुरस्कार को जीत लें और इसे अपने अधिकार में बनाये रहें तो इसके सामने कोई बलिदान या उद्योग या संयोग कुछ नहीं है। परन्तु यदि इन अन्तिम दिनों में प्रजातांत्रिक मस्तिष्क को राष्ट्र की शान का बिल्कुल ध्यान नहीं रह गया है तो कम से कम उस आर्थिक परिणाम की ओर ध्यान देना चाहिए जो भारतवर्ष के हमारे हाथ से निकल जाने पर हमारे प्रत्येक गृह में उपस्थित हो जायगा। बेशक, अभी से उनका कोई विवरण नहीं दिया जा सकता परन्तु उनका साधारण प्रभाव बिना बहुत बड़ा हुए नहीं रहेगा।

"अपने विभिन्न स्वार्थों पर, अपनी पूँजी पर, ब्याज से पलने- वालों की संख्या पर, ब्रिटिश के धन्धों के लिए भारत के उद्भिज