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दुखी भारत

अविश्वास और घृणा भी ऐसी उत्पन्न कर दी जैसी पहले कभी नहीं थी। यदि नरम दलवाले भी असहयोग आन्दोलन में भाग लेते तो सरकार की निश्चय पराजय होती और यह सन्धि के लिए प्रस्ताव करती। परन्तु सम्पूर्ण युद्ध में इन लोगों ने सरकार का ही साथ दिया।

प्रथम सुधार-शासन तीन वर्ष रहा। १९२० से १६२३ तक। और इसको जो कुछ भी सफलता मिली उसका मुख्य कारण नर्म दलवालों का हार्दिक सहयोग था। १९२३ ईसवी के साधारण निर्वाचन में नर्मदलवाले कांग्रेस के मनुष्यों द्वारा हराये गये। उन्हीं के शब्दों में कहें तो हराये ही नहीं गये, मैदान से भगा दिये गये। परन्तु उसी समय एक विचिन्न परिस्थिति यह उत्पन्न हो गई कि सरकार ने भी उनको छोड़ना प्रारम्भ कर दिया और उनके स्थान पर ऐसे लोगों को भर्ती करना प्रारम्भ कर दिया जिन्होंने अब तक देश की राजनीति में जरा भी भाग नहीं लिया था। और जो अपने उलटे विचारों के लिए प्रसिद्ध थे।

इससे सुधारों की अधोगति आरम्भ हुई। अब असहयोग आन्दोलन निर्बल पड़ गया था। हिन्दू-मुसलिम-वैमनस्य बढ़ रहा था। सरकार ने इसकी सृष्टि की थी और वही इसका पालन कर रही थी तथा सरकारी अफ़सर और अन्य स्वार्थ रखनेवाले व्यक्ति इसको जानबूझ कर प्रोत्साहन दे रहे थे। नौकरशाही अपना खोया हुआ प्रभाव फिर से प्राप्त कर रही थी। इसी अवसर पर अधिकारियों ने राष्ट्रविरोधी शक्तियों से अपना अपवित्र सम्बन्ध स्थापित किया और उन्हें राष्ट्र को पीछे ढकेलने के लिए अपना हथियार बनाया। उसके पश्चात् सुधार विरोध का पर्यायवाची हो गया; और ऐसी कार्य्यवाहियाँ की गई जिन्होंने सुधारों को केवल मज़ाक की ही वस्तु नहीं बना दिया बल्कि भारतवासियों की स्वराज्य की मांग के प्रति ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के भावी निश्चय का भी स्पष्ट आभास करा दिया। स्थानाभाव के कारण हम इन बाधक कार्य्यवाहियों का विस्तृत वर्णन नहीं कर सकते। उनके सम्बन्ध में हम केवल दो चार मोटी मोटी बातें बता सकते हैं।

महत्त्व और समय के अनुसार पहले हम उस निर्णय का उल्लेख कर सकते हैं जो सरकार ने सार्वजनिक नौकरियों के सम्बन्ध में ली कमीशन के