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दुखी भारत

न मिलने पावे। अँगरेज़ी जहाज़ भारतीय माल उत्पन्न करनेवालों के हितों की कोई परवाह नहीं करते, तिस पर भी भारत को अपना निजी सामुद्रिक व्यापार-संघ स्थापित करने की आज्ञा नहीं मिलती। भारतीय सामुद्रिक व्यापार-सभा की १९२४ की सिफ़ारिशें चुपचाप ताक पर रख दी गईं।

इस भाव के पीछे जो नीति काम कर रही है वह अब भी प्रबल ही होती जाती है। रेलवे शासन की लगाम सरकार दृढ़ता के साथ अपने हाथ में लिये हुए है। और व्यापारिक कर की ऐसी व्यवस्था की जाती है कि ब्रिटिश व्यापार को सहायता मिलती है और भारतीय औद्योगिक विकास की उन्नति में बाधा पहुँचती है। रेल का प्रबन्ध पूर्ण-रूप से अँगरेज़ों के ही हाथ में है और सरकार ने रेलवे बोर्ड में एक भी भारतीय सदस्य रखना अस्वीकार कर दिया है। इसका भयानक कारण यह बतलाया है कि भारतवर्ष में एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो इस पद के योग्य हो। इससे भारतवासियों को और भी यह विश्वास हो गया है कि भारतवासियों के लिए स्वराज्य के प्रति सरकार की सच्ची सहानुभूति नहीं है।

व्यापार-कर की नवीन नीति यह है कि ब्रिटेन और साम्राज्य की वस्तुओं को दबे दबे पहले मौक़ा दिया जाता है। इस देश का सबसे अधिक अपमान करने वाली मदर इंडिया की लेखिका का सरकारी अफ़सरों ने बहुत ही अधिक आदर-सत्कार किया है फिर भी वे पाखण्ड के साथ हमसे कहते हैं कि अमरीका की फ़िल्मों में भारतीय जीवन अपमान के साथ उपस्थित किया जाता है इसलिए हमें ब्रिटिश फ़िल्मों को पहले ख़रीदना चाहिए। यह उपदेश केवल इसलिए दिया जा रहा है कि ब्रिटिश के फ़िल्म बनानेवाले अपने अमरीकन प्रतिद्वन्द्वियों की समता गुणों में नहीं कर सकते।

कोष से सेना की ओर आने पर हम देखते हैं कि एक ओर तो हमसे यह कहा जाता है कि हम भारतवासी लोग भारतवर्ष की रक्षा करने में असमर्थ हैं इसलिए यहाँ ब्रिटिश शासन की बराबर आवश्यकता है और दूसरी ओर हमें उस कार्य के योग्य बनने के लिए जान बूझ कर और बलपूर्वक अवसर नहीं दिया जाता। सेना-विभाग अत्यन्त पवित्र है। इसके