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बत्तीसवाँ अध्याय
'दुःखदायक, जटिल और अनिश्चित पद्धति'

हम यह देख चुके कि जिन सुधारों का मांटेग्यू और चेम्सफोर्ड के नामों के साथ सम्बन्ध है उनकी उत्पत्ति 'दयावेश की शीघ्रता' में नहीं हुई थी। तब भी पाठक तो यह जानना ही चाहेंगे कि व्यवहार में वे कैसे रहे? भारतवासियों पर कभी कभी यह दोषारोपण किया जाता है कि वे 'प्रजातान्त्रिक' सुधारों पर काम करके प्रजातान्त्रिक शासन की व्यवस्था करने में सहयोग नहीं देते और अड़चनें उपस्थित करते हैं। यह बात अत्यन्त भ्रमोत्पादक है। सच बात तो यह है कि यह सुधार-क़ानून प्रजातान्त्रिक व्यवस्था ही नहीं है। यह मुश्किल से सम्पूर्ण जन-संख्या के २ प्रतिशत भाग को मताधिकार देता है। और इससे कार्य करने योग्य विधानात्मक मन्त्र की सृष्टि नहीं होती। इसमें जो थोड़ा सा उन्नति का भाव था भी उसे अनुदार ऐंग्लो इंडियन अफ़सरों ने और इंडिया आफ़िस ने दबा दिया है। जो लोग सुधारों पर उत्साह प्रदर्शित कर रहे थे उन्होंने भी इस पर काम करने में कठिनाई अनुभव की है। १९२४ ईसवी में सर मुडीमैन के सभापतित्व में इन सुधारों की जाँच करने के लिए जो कमेटी नियुक्त हुई थी उसके सामने अनेक भारतीय मन्त्रियों और भूतपूर्व मन्त्रियों ने इस कठिनाई को उपस्थित किया था। अँगरेज़ शासक भी अनुभव से इस परिणाम पर पहुँचने के लिए विवश हुए हैं। बिहार और उड़ीसा के गवर्नर सर हेनरी ह्वीलर ने मांटेग्यू चेम्सफोर्ड की इस दोहरी राज्य-व्यवस्था के सम्बन्ध में कहा था कि-'इस पद्धति में जो कुछ भी दोष हैं वे सब इसके जन्म से ही इसमें विद्यमान हैं।......अब इस पद्धति पर काम हो सकता है पर यह जटिल बहुत है।' गवर्नर की कार्य्य-कारिणी समिति के योरपियन सदस्य सर हफ़ मेकफ़रसन ने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये थे।