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दुखी भारत

सर के॰ वी॰ रिद्दी के ऊपर उद्धृत किये गये वाक्यों से दत्त-विभागों की कथा की अच्छी समालोचना हो जाती है। 'उत्तरदायित्वपूर्ण' मन्त्री बिलकुल उत्तरदायित्वपूर्ण नहीं हैं। इसके अतिरिक्त—जैसा कि श्रीयुत सच्चिदानन्द सिनहा, जो स्वयं भी बिहार-उड़ीसा की सरकार के अदत्त-विभागों से सम्बन्ध रखते थे, कहते हैं-'कार्य्यकारिणी-समिति का नये से नया सदस्य पुराने से पुराने मंत्री से भी बड़ा और अनुभवी समझा जाता है*[१]।' कार्य्यकारिणी समिति में या अदत्त-विभागों में योरपियन सदस्यों की प्रधानता रहती है। एक उदाहरण लीजिए। कार्य्यकारिणी समिति का एक भारतीय सदस्य 'होम मेंबर' बनाया गया। परन्तु गवर्नर ने कर्मचारियों की नियुक्ति का मुख्य कार्य्य उसे न देकर उसके सिविलियन सहकारी को सौंपा। जब व्यवस्थापिका सभा में यह प्रश्न उठाया गया तब उत्तर मिला कि सरकारी कार्य्य का संचालन सरकार का घरेलू विषय है!

दत्त-विभागों का सञ्चालन प्रायः भारतीय मन्त्रियों-द्वारा नहीं होता बल्कि उनके स्थायी मन्त्रियों-द्वारा होता है जो साधारणतया योरपियन आई॰ सी॰ एस॰ होते हैं। सर अली इमाम, जो ताज के अधीन न्याय-विभाग और कार्य्यकारिणी सभा के उच्च से उच्च पद पर रह चुके हैं, कहते हैं:-

"दत्त-विभाग मंत्रियों के हाथ में होते हैं जो उनके लिए सभा के सामने उत्तरदायी समझे जाते हैं। परन्तु यद्यपि प्रजातान्त्रिक शासन का सब स्वरूप दिखाई पड़ता है तथापि यह वैसा ही होता है जैसा बिना गिरी का नारियल। मंत्री अपने विभाग का कार्य सञ्चालन करता है परन्तु उसको एक स्थायी सेक्रेटरी रखना पड़ता है, जिसके ऊपर उसका कोई अधिकार नहीं होता। यदि मंत्री कुछ करना चाहता है तो सेक्रेटरी गवर्नर के पास जाकर उसके विरूद्ध कह सकता है और गवर्नर मंत्री को वह कार्य्य करने के लिए मना कर सकता है। परिणाम यह होता है कि मंत्री उत्तरदायी तो समझा जाता है सभा के सम्मुख; परन्तु उसे कार्य्य करना पड़ता है गवर्नर की आज्ञा के अनुसार।


  1. *उनका 'भारतीय प्रान्तों में दोहरा शासन' नामक निबन्ध देखिए। जिसे उन्होंने गत वर्ष ईस्ट इंडिया एसोसिएशन लंदन के सम्मुख पढ़ा था। इस अध्याय की कुछ बातें उसी निबन्ध से ली गई हैं।