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दुखी भारत

में न पहुँच सके। जब मुहम्मद अली तुर्क-साम्राज्य को भङ्ग करने के लिए मिस्र से रवाना हुआ तब सीरिया में उसे अँगरेजी वेड़े और सेना का सामना करना पड़ा। ठीक वैसे ही जैसे नैपोलियन को करना पड़ा था। वैदेशिक दफ्तर अँगरेज जनता के स्वभाव के विरुद्ध, बालकन राज्यों की स्वतंत्रता का बराबर विरोध करता रहा और मुसलमानों-द्वारा ईसाइयों का वध करवाता रहा। क्रीमीन में उसने तुर्की की रक्षा करने के लिए युद्ध किया था और अदि सैन स्टीफैनो की सन्धि तोड़ न दी गई होती तो लार्ड बिकान्सफील्ड १८७७ ईसवी में रुस के साथ दूसरा युद्ध आरम्भ कर देते। ब्रिटिश सरकार ने स्वेज़ नहर के काटे जाने का विरोध किया था। परन्तु जब नहर बन कर तैयार हो गई तब ब्रिटिश ने उसे स्वेज़ कम्पनी द्वारा अपने अधिकार में कर लिया। तब ब्रिटिश ने स्वयं वह कार्य किया जिसे कोई दूसरा राष्ट्र करने की चेष्टा करता तो वह उससे बिना युद्ध किये न रहता। उसने सिपरस की संधि करके और मिस्र पर अधिकार करके प्रथम बार तुर्क-साम्राज्य की अखण्डता को भङ्ग किया। जब मिस्त्र सुरक्षित रूप से अँगरेजों के हाथ में आ गया तब वैदेशिक कार्यालय ने अपनी बालकान-नीति बदलने में जरा भी आगा पीछा नहीं किया। १८८५ ईसवी में ब्रिटिश न्रे पूर्वीय रूमीलिया के बलगारिया में मिला दिये जाने का समर्थन किया। परन्तु उसके पाठ वर्ष पूर्व बृहत् बलगारिया के निर्माण को रोकने के लिए अँगरेज़ राजनीतिज्ञ योरप को युद्ध के रक्त में डुबो देने से ज़रा भी न हिचकते।

"मिस्त्र पर ब्रिटेन ने थोड़े ही समय के लिए अधिकार किया था। ब्रिटिश सरकार ने अन्य राष्ट्रों के सम्मुख बड़ी गम्भीरता के साथ यह घोषणा की थी कि माइल पर स्थायी रूप से अधिकार जमाने की उसकी इच्छा नहीं है और वह मिस्त्र को शीघ्र ही स्वतंत्र कर देगा। इस अधिकार की अवधि बढ़ती ही गई। सदा ही उसे न छोड़ने के लिए यथेष्ट कारण उपस्थित थे। १९ वीं शताब्दी के अन्त में ब्रिटेन ने मित्र और लालसागर पर अपना अधिकार सुरक्षित रखने के लिए सुदान को फिर जीत लिया। बोर युद्ध भी इसी लिए किया गया कि उसके हाथ से दक्षिणी अफ्रीका न निकल जाय। केप से कैरो तक––पूरी ब्रिटिश-रेलवे निर्माण करने की योजना की गई। नील के उद्गम की ओर बढ़ते बढ़ते अँगरेज़ फसोडा में फ्रांसीसी शासन के संघर्ष में पहुँचे। यदि फ्रांसीसी लोग सम्भव समझते या उनके ऐसे मित्र होते जो उनकी सहायता करते तो वे अँगरेजों के विरुद्ध युद्ध-घोषणा कर देते। दोनों देशों के राजनीतिज्ञों ने युद्ध करने के स्थान पर समस्त औपनिवेशिक प्रश्नों पर आपस में समझौता कर लिया। यह कार्य कठिन नहीं था क्योंकि फ्रांसीसियों की दृष्टि मोरक्को पर जमी हुई थी और भारत में किसी प्रकार के अधिकार का वे दावा नहीं करते थे। ८ मई १९०४ ईसवी में ग्रेटब्रिटेन और फ्रांस ने एक सन्धिपत्र