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संसार का सङ्कट––भारतवर्ष

है। यह पूर्ण रूप से संसार की दो या तीन बड़ी शक्तियों के अँगूठे के नीचे दवा है। यह भी खूब अच्छी तरह स्पष्ट है कि ये दो या तीन शक्तियाँ भी एक दूसरे से बिल्कुल प्रसन्न नहीं हैं। उन शक्तियों का कहना ही क्या जो राष्ट्र-संघ में सम्मिलित नहीं हैं और जो अपने ऊपर हुए भूतकाल के अत्याचारों का बदला चाहती हैं। इस प्रकार भारत सदा ही चिन्ता का कारण रहेगा-ब्रिटेन के शत्रुओं के लिए सदा ही षड्यन्त्र का क्षेत्र बना रहेगा। परन्तु एक संतुष्ट भारत योरपियन शक्तियों के बीच होनेवाले समस्त युद्धों को दूर रख सकता है। दूसरे देशों के प्रति इंगलैंड जिस उद्दण्डता का व्यवहार करता है वह उसके भारत में प्राप्त साधनों से प्रेरित होती है या कम से कम प्रभावित होती है। वे साधन जव उसके हाथ से निकल जायेंगे, या कम हो जायेंगे या उसकी पहुँच से दूर कर दिये जायेंगे तब वह संयत राष्ट्र हो जायगा और अन्य राष्ट्रों के साथ न्याय तथा सुजनता का व्यवहार करने लगेगा। जब तक वह भारत का, उसके आर्थिक साधनों का, उसकी जन-शक्ति का प्रयोग कर सकता है तब तक उसके लिए वर्तमान काल की उस उद्दण्डता का भाव बनाये रखना अनिवार्य है जिसकी झलक लार्ड बर्कनहेड और मिस्टर विन्स्टन चर्चिल जैसे राजनीतिज्ञों के व्याख्यानों में प्रायः मिलती रहती है। एक अत्याचारी, उद्दण्ड, पृष्ट और भारतवर्ष को अपने इशारे पर नचानेवाला ग्रेटविटेन विश्वशान्ति के लिए खतरा है। भारत के स्वाधीन होते ही वह ख़तरा जाता रहेगा। यह विषय इतना स्पष्ट है कि इस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।

यह भी भली भाँति स्पष्ट है कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं हो जाता, वह अपने राष्ट्रीय जीवन के उन विभागों की उन्नति नहीं कर सकता जो रोग से उसकी मुक्ति कर सकते हैं। रोग और महामारियाँ, जैसा कि हम बतला आये हैं, मूर्खता और गरीबी से उत्पन्न होती हैं। और मूर्खता और ग़रीबी का नाश तब तक नहीं हो सकता जब तक ब्रिटेन भारत को अपनी मुट्ठी में किये हुए है और जब तक ब्रिटिश की राज्य-कोष-नीति उसी के स्वार्थों––साम्राज्यवाद, सेनावाद और अर्थवाद––की दृष्टि से निश्चित की जाती है। यह आशा करना बहुत अधिक है कि इंगलेंड इनमें से किसी का कोई अंश कम कर देगा। शक्ति के इस नशे में ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल ने और,

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