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दुखी भारत

ब्रिटिश-पार्लियामेंट ने हाल के शाही कमीशन के विधान में भारतीय लोकमत का जो अपमान किया है उससे भी यही बात सिद्ध होती है। यहाँ एक दूसरे प्रामाणिक अमरीकन लेखक का वक्तव्य उद्धृत करना उपयुक्त ही होगा जो न्यूयार्क से चिल्ला रहा है। न्यूयार्क के आध्यात्मिक विद्यालय के भूतपूर्व सभापति और वेदान्त के अध्यापक रेवरेंड डाक्टर चार्लस कटबर्ट हाल लिखते हैं:––

"इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इँगलेंड भारत पर, उसके लाभ के लिए नहीं बल्कि अपने लाभ के लिए शासन कर रहा है। मेरे लिए यह कहना बहुत कठिन है। क्योंकि जब तक मैं भारत नहीं गया था, मेरी समस्त सहानुभूति अँगरेज़ों के साथ थी। मेरी आरम्भिक शिक्षा अधिकांश में इँगलेंड में ही हुई थी और वहाँ मेरे बहुत से प्रिय मित्र हैं। परन्तु इस समय मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है; और सत्य को अवश्य कहना चाहिए।......

"यह प्रत्यक्ष बात हमारे चेहरे में घूरती है कि भारत में किसी समय, किसी वर्ष खाद्य पदार्थ की कमी नहीं होती। कठिनाई यह है कि ब्रिटिश सरकार ने जो कर लगाये हैं वे उपज के ५० प्रतिशत हैं। इससे भारतीय भूखों मरते हैं ताकि इँगलेंड की वार्षिक कर की आय में एक रुपये की भी कमी न हो। सम्पूर्ण जनसंख्या के ८० प्रतिशत भाग को खेतों में जान देने के लिए विवश होना पड़ा है क्योंकि इँगलेंड की पक्षपात से चुङ्गी लगाने की नीति ने सब प्रकार के देशी व्यवसायों को नष्ट कर दिया। और ये खेत जोतनेवाले जब अपने आपको अन्तिम बार ऋणदाता के हाथ बेच देते हैं, जब बार बार अपनी फसल और अपनी भूमि का छोटा-सा टुकड़ा गिरवी रख चुकते हैं तब तहसीलदार उनका सब कुछ नीलाम करके उन्हें भिखारी बना देता है। बेचारे इधर-उधर भटकते हैं और अन्त में भूख से तड़पकर मर जाते हैं।.........हम जहाज़ों में अन्न भर कर भारतवर्ष को भेजते हैं परन्तु भारतवर्ष में यथेष्ट अन्न है। कठिनाई यह है कि लोग गरीबी से इतना अधिक पिस गये हैं कि उनके पास अन्न खरीदने के लिए पैसा ही नहीं है। अकाल ने अब वहाँ स्थायी रूप धारण कर लिया है। फिर भी उसी प्रकार प्रतिवर्ष खाद्य पदार्थ जहाज़ों में लाद कर इँगलेंड को रवाना किया जा रहा है और प्रतिवर्ष उसी प्रकार करोड़ों रुपयों का अपव्यय किया जा रहा है[१]।........."


  1. न्यूयार्क के बार एसोसिएशन में दिये गये एक व्याख्यान से। 'दी पब्लिक', २० नवम्बर १९०८ से उद्धृत।